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संस्कृत-साहित्य में सरस्वती की कतिपय झाँकियाँ
सरस्वती, इला एवं भारती के प्रसङ्ग में सरस्वती का स्थान अंतरिक्ष अथवा मध्यक्षेत्र बताया गया है और इस प्रकार वह माध्यमिका वाक् है, जो मध्यम स्थान से सर्वप्रथम प्राकृतिक अनुभवों के रूप में उत्पन्न हुई कल्पित की गई है । स्पष्ट शब्दों में इसे यों भी कहा जा सकता है कि सृष्टि के आदि काल में आकाश में बादल रहे होंगे। उनके परस्पर संघर्ष के कारण बिजली उत्पन्न हुई होगी और अंततोगत्वा उससे शब्द उत्पन्न हुआ होगा। इसी शब्द के सर्वप्रथम अंतरिक्षजात होने के कारण उसे प्रकृतिपरक व्याख्यानुसार माध्यमिका वाक् माना गया होगा और बाद में इसी से अधिक विश्लेषिता होकर परा, पश्यंती, मध्यमा एवं वैखरी का रूप धारण कर लिया होगा । सायण सत्य ही कहते हैं कि सरस्वती = सर इत्युदकनाम । तद्वती स्तनितादिरूपा माध्यमिका च वाक्' । इसी मंत्र में उन्होंने भारती को 'भारती भरतस्यादित्यस्य संबंधिनी द्युस्थाना वाक्' तथा इडा 'इडा पार्थिवी प्रैषादिरूपा' कह सत्यतः उनको 'पश्यंती' तथा 'वैखरी' रूप वाणियों के भेद ही माने हैं। यह भारती द्युस्थाना वाक् हो सूर्य से भली-भाँति संबद्ध रह 'रश्मिरूपा२१ कही गई है, जो प्राकृतिक अनुभाव का ही एक रूप है । यही रश्मिरूपा भारती तथा स्तनितादिरूपा सरस्वती, पृथ्वी पर भली-भाँति समझी एवं समझाई जाने वाली होने के कारण वैखरी-रूप हैं, परन्तु बिंदु कुलिश अथवा वज्र है, अत एव माध्यमिका वाणी का जनक यही है । इस प्रकार 'पावीरवी' को विद्युत्सुता मानकर 'माध्यमिका वाक्' का ही एक प्रकार से मनोवैज्ञानिक एवं प्राकृतिक विवेचन करना है और कुछ नहीं । जहाँ पर 'पावीरवी' शब्द आया है, वहाँ सरस्वती को वाग्देवी मानकर, उस मंत्र की बुद्धिपरक व्याख्या करना सर्वथा उपयुक्त एवं उचित प्रतीत होता है । शब्द को और जटिल बनाना, एक प्रकार से अपने को अंधेरे में रखना है ।
प्रारम्भ में गिनाए गए ऋतावरि ! ऋ० २. ४१. १४; सप्तस्वसा ऋ० ६. ६१. १०; सप्तधातुः ऋ० ६. ६१. १२; सप्तथी ऋ० ७. ३६. ६; त्रिषधस्था ऋ० ६. ६१. १२ विशेषणों से सरस्वती के सामाजिक भगिनित्व पर; मरुत्सखा ऋ० ७. ६६. २; सख्या ऋ० ६.६१. १४; उत्तरा सखिभ्यः ऋ० ७. ६५. ४ से सरस्वती के सामाजिक सखित्व पर, सुभागा ऋ० १. ८६. ३, ७. ६५. ४; ८. २१. १७; मरुत्वती ऋ० २. ३०.८; वृष्णः पत्नी ऋ० ५. ४२. १२; वीरपत्नी ऋ० ६. ४६. ७; प्रियतमे ऋ० ७. ६५. ५; सुभगे ! ऋ० ७. ६५. ६, भद्रा ऋ० ७.६६. ३; से, उसके सामाजिक पत्नित्व पर; पावीरवी ऋ० ६. ४६. ७; १०. ६५. १३; कन्या ऋ० ६. ४६. ७; से उसके सामाजिक पुत्रित्व पर; मयोभूः ऋ० १. १३. ६, ५. ५. ८; अन्वितमे ! ऋ० २. ४१. १६; सिंधुमाता ऋ० ७. ३६. ६ से, उसके सामाजिक मातृत्व पर तथा शेष से उसके अन्य अवशेष पक्षों पर प्रकाश पड़ता है।
३०. सायण-व्याख्या, ऋ० १. १४२. ६ ३१. वही, २.१.११