Book Title: Sanskrit Sahitya Me Sarasvati Ki Katipay Zankiya
Author(s): Muhammad Israil Khan
Publisher: Crisent Publishing House

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Page 36
________________ संस्कृत-साहित्य में सरस्वती की कतिपय झाँकियाँ को जलों की माता माना है। इस प्रकार सरस्वती जलों की माँ है, न कि सिंधु की। __ हम व्यक्तिगतरूप से इसी प्रकार की सम्मति से सहमत हैं और इस बात के पक्षपाती हैं कि 'नदी-स्तुति' में गिनाए गए नदियों के नामों के अतिरिक्त, सरस्वती के साथ आए 'सिंधु' का अर्थ सामान्य नदी के लिये हुआ है । 'नदी-स्तुति' के सिंधु को कभी भी सरस्वती की जन्मदात्री नहीं मान सकते हैं। इसके कई कारण हैं । सर्वप्रथम यह कहा जा सकता है कि इसका वर्णन बहुत ही थोड़े से मंत्रों में एक साधारण नदी के लिये हुआ है, जब कि सरस्वती का विशद् एवं व्यापक वर्णन, उसे बिलकुल फीका बना देता है। साथ ही ऋग्वेद के सरस्वती-सम्बन्धी 'नदीतमा" को लेकर सारी शंकाएँ दूर की जा सकती हैं । सरस्वती का एक विशेषण 'धरुणमायसी पूः" है, जो उसे एक स्वतन्त्र सत्ता प्रदान करने, नदियों की माता उद्घोषित करने तथा बड़े-बड़े नदी-नदों की प्रसवित्री घोषित करने तथा सैकड़ों दलीलों की एक दलील है। पश्चिमी विद्वानों में से राथ तथा जिमर' जैसे विद्वान् जो सरस्वती का समन्वय 'सिंधु' से दिखाने का साहस करते हैं, उन्हीं में से उन्हीं के साथी लासेन तथा मैक्समूलर' सरस्वती को एक स्वतन्त्र सत्ता प्रदान करने का श्लाधनीय कदम उठाते हैं और उसे भारत की पश्चिमी सीमाओं का एक लोहदुर्ग मानते हैं । प्रसङ्ग अधिक व्यापक और विषय दूरगामी हो जाएगा, यदि हम यहाँ प्रसङ्गात् 'धरुणमायसी पूः' की कल्पना इस लौह-दुर्ग में न करें। यह बात बिलकुल सत्य जान पड़ती है कि सरस्वती अपने विशाल शरीर से भारत के पश्चिमी भाग में अवस्थित रह कर, देश की रक्षा करती रही हो और पश्चिम से भारत पर हमला करनेवाले बहादुर लोग, अपने उद्यम में, इसे बहुत बड़ी बाधा डालने वाली मानते रहे हों । यह अपनी विशाल एवं उच्च लहरों से मान न भरनेवाली बनकर, उन्हें अपने पार करने में चुनौती देती रही हो और उन्हें भयभीत कर सहज में उनका साहस तोड़ती रही हो। तब जाकर कहीं उसे यह गौरव प्राप्त हुआ हो कि वह एक लौह-दुर्ग कहलाए। यहाँ यह भावना २. वही, १.६७.८; १.२५.५; २.११.६, २५.३-५; ३.३५.६ इत्यादि, अथर्व वेद, ३.१३.१; ४.२५.२; १०.४.१५; १३.३.५० इत्यादि । मैक्डानेल ___ और कीथ, वैदिक इंडेक्स, (मोतीलाल बनारसीदास, भाग २), पृ० ४५० ३. ऋ० २.४१.१६ ४. वही, ७.६५.१ मैक्डानेल और कीथ, वैदिक इंडेक्स, भाग २, (मोतीलाल बनारसीदास) १६५८), पृ० ४३५ ६. वही, पृ० ४३५-३६ ७. वही, पृ०.४३६

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