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वाणी के चतुर्विध-रूप
१. ऋग्वैदिक देवियों का त्रिक: जिस प्रकार वैदिकेतर साहित्य में लक्ष्मी, सरस्वती तथा पार्वती तीन देवियों का त्रिक बनता है, उसी प्रकार ऋग्वैदिक काल में सरस्वती, इडा तथा भारती तीन देवियाँ भी त्रिक बनाती हैं । इन का पारस्परिक बड़ा घनिष्ठ सम्बन्ध है । इन देवियों के पीछे कई प्रकार के भाव छिपे हुए हैं । वे अपने भिन्न व्यक्तित्व के कारण अपनीअपनी स्वतंत्र सत्ता रखती हैं तथा उन में कुछ गुण ऐसे भी हैं, जिनके आधार पर वे भिन्न प्रतीत होती हुई भी एक हैं । वैदिक साहित्य के अध्ययन से ज्ञात होता है कि हमारे आदि ऋषि आद्यन्त प्रकृतिवादी नहीं थे, अपितु प्रकृति के प्रति उनका अपना एक विशेष प्रकार का मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण था, तथा वे उन के आधार पर प्रकृति के भिन्न-भिन्न पदार्थों को भिन्न-भिन्न प्रतीकों का रूप दे रखा था। फलतः उनसे बाह्य एवं आन्तरिक प्रभाव की अपेक्षा सदैव बनी रही। स्थूल से सूक्ष्म दिशा की ओर जाना स्वभावानुकूल था ।
इडा ऋग्वेद में गौ से प्राप्त होने वाले घी तथा दूध का मानवीकृत हवनरूप है अत एव वह गौ से प्राप्त होने वाले धन का प्रतिनिधित्व करती है । वह सरस्वती की भाँति 'धेनुरूप'१६ है । ऋग्वेद में इसके कई गुण बताये गये हैं । यह प्रत्येक ऋतु में नित्य फल धारण करती है । गौ रूप से वह अन्य पशुओं में सर्वश्रेष्ठ है, अत एव उसे पशुओं की माँ की संज्ञा दी गई है। उसके हाथ तथा घर घृतयुक्त बताये गये हैं। यह जहाँ रहती है, वहाँ अग्नि शत्रुओं से रक्षा करते हैं तथा कल्याण प्रदान करते हैं । हाथ के समान इसके पग भी घृतयुक्त हैं । घृत प्रफुल्लता, बहुलता तथा आधिक्य का द्योतक है, अत एव इस का प्रतिनिधित्व करने वाली इडा को प्रफुल्लता अथवा समृद्धि की देवी माना जा सकता है। इस क्षेत्र पर इसका पूर्ण आधिपत्य नहीं माना जा सकता, क्योंकि ऋग्वेद में अन्य अनेक देवियाँ हैं. जिनका व्यक्तित्व इडा से अधिक निखरा हुआ है और वे स्पष्टतर रूप से शान्ति, कल्याण, समृद्धि तथा आधिक्य प्रदान करने वाली हैं । अस्तु ।
भारती इडा के समान ही यज्ञ की देवी है२२ । ऋग्वैदिक मंत्रों में इसका आवाहन प्रायः सामान्य रूप से स्वतंत्र हुआ है२३, परन्तु कुछ स्थलों पर यह सरस्वती तथा इडा से मिलकर तीन देवियों का त्रिक बनाती है। वैदिकेतर साहित्य में इनमें महान् परिवर्तन हो जाता है। ये आपस में मिल जाती हैं तथा यहाँ एक दूसरा नाम पायरूप में आता है । चारो वेदों में अथर्ववेद को अर्वाचीन माना गया हैं । यहाँ एक स्थल पर 'तिसः सरस्वतीः' का प्रसङ्ग आता है ।२४ भाष्यकारों ने इसका अर्थ सरस्वती, इडा तथा भारती किया है । ऐसा जान पड़ता है कि वैदिकेतर काल प्रारम्भ होने के पूर्व स्वयं वैदिक काल का अन्त होते-होते इन देवियों में तादात्म्य स्थापित हो गया था। इस तादात्म्य का मूलाधार इन के पीछे छिपी हुई कोई सामान्य अथवा विशेष कल्पना का साम्य अवश्य रहा होगा। इस साम्य को वेदों से ही ढूंढने पर ज्ञात होता है कि ये देवियाँ एक शृङ्खला में आबद्ध हैं तथा वे अन्यान्य की अपेक्षा रखती हैं । ऐसा होने