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संस्कृत-साहित्य में सरस्वती की कतिपय झाँकियाँ
के बायें तथा दाहिने ओर बनानी चाहिये । विष्णुधर्मोत्तरपुराण के अनुसार सावित्री को बायें दिखाया गया है। पुराणों में सरस्वती के मुख-निर्माण का विवेचन नहीं मिलता है, परन्तु मानसार में उसे 'दशताल' मान के अनुसार बनाने का विधान मिलता है । तदनन्तर सरस्वती के हाथों के निर्माण, हाथों की संख्या तथा हाथों में घृत पदार्थों का विवेचन है | सामान्यतः सरस्वती के चार हाथ होते हैं । कहीं-कहीं उसे वीणा तथा पुस्तक धारिणी कहकर दो हाथों वाली बताया गया है। जैन धर्म में विद्या- देवियों के हाथों की संख्या आठ तथा दस तक पहुँच गई है। सरस्वती के चार हाथ चारो वेदों IIT प्रतिनिधित्व करते हैं । सरस्वती के चारो हाथों में निक्षिप्त पुस्तक, वीणा, कमण्डलु तथा अक्षमाला विभिन्न तथ्यों का प्रतिनिधित्व करते हैं । पुस्तक तथा कमण्डलु समस्त शास्त्रों के सार का प्रतिनिधित्व करते हैं । वीणा परम संसिद्धि की प्रतीक है । अक्षमाला समय की गति को नापने का साधन है । इस निरीक्षण के उपरान्त सरस्वती का भौतिक रूप प्रस्तुत किया गया है । इस रूप में उसे एक नदी रूप में प्रस्तुत किया गया है । सरस्वती नदी क्यों बनी ? इस सम्बन्ध में एक पौराणिक आख्यान विस्तार से वर्णित है । इसके पश्चात् सरस्वती के पवित्रांश पर विचार किया गया है तथा उसे पुण्यतोया, पुण्यजला, शुभा, पुण्या, अतिपुण्या आदि कहा गया है । तदनन्तर सरस्वती की पौराणिक उपाधियों का विस्तृत विवेचन है । तत्पश्चात् सरस्वती के विवाह पर प्रकाश डाला गया है तथा उसे ब्रह्मा, धर्मराज, मनु, विष्णु, आदित्य तथा गणपति से सम्बद्ध दिखाया गया है । सरस्वती के विवाह के पश्चात् उसकी सन्तानों का विवेचन है । उसकी सन्तानों में सारस्वत, स्वायंभुव मनु ऋषि, प्रजापति आदि हैं ।
इस शोध-प्रबन्ध का अन्तिम अध्याय 'लौकिक साहित्य में सरस्वती का स्वरूप' हैं । यहाँ केवल प्रमुख लेखकों तथा नाट्यकारों की कृतियों के माध्यम से सरस्वती के स्वरूपों को निहारने का प्रयास किया गया है। ऐसे लेखकों में कालिदास, अश्वघोष, भारवि, माघ, भवभूति, दण्डी, सुबन्धु, बाणभट्ट, राजशेखर, भर्तृहरि, बिल्हण और कल्हण को लिया गया है । इन्होंने विभिन्न प्रसङ्गों में सरस्वती का रूप चित्रित किया हैं । ऐसा करना आवश्यक था, क्योंकि हम प्रायः इनकी कृतियों को पढ़ते हैं और बहुत सी सरस्वती-सम्बन्धी बातों को जानते हैं, परन्तु उनकी क्रमबद्धता से परिचित नहीं हैं अथवा बहुत गहराई में नहीं गये हैं । इनकी कृतियों के अध्ययन से सरस्वती के विभिन्न पक्षों का हमें सहज में ही ज्ञान हो जाता है ।
इस शोध-प्रबन्ध का अन्तिम भाग 'परिशिष्ट-रूप' में रखा गया हैं । इसके द्वारा सरस्वती की ग्रीस तथा रोम की पौराणिक कथा में वर्णित कतिपय देवियों के साथ सम्बन्ध दिखाया गया है । भारतीय पौराणिक कथा बहुदेववाद है तथा ग्रीस तथा रोम की पौराणिक कथा भी बहुदेववाद है, अत एव इनमें पारस्परिक अनेक समतायें सामान्यतः तथा एक-एक देव एवं देवी को लेकर भी पाई जाती हैं । उदाहरण के रूप में रोमन देवी मिनर्वा (Minerva ) है । इसे वहाँ कलाओं ( Arts ), व्यापार, स्मृति