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संस्कृत-साहित्य में सरस्वती की कतिपय झांकियाँ
पहाड़ों से आकर गिरती थी तथा राजस्थान समुद्र से होकर अरब सागर में विलीन होती थी। पुनः भू-परिवर्तनों से सरस्वती का मार्ग बदल गया तथा यह और उत्तर तथा पश्चिमवर्ती हो गई। पुराणों में सरस्वती के इस परिवर्तन को प्राची (पद्मपुराण, ५.१८.२१७) तथा पश्चिमामुखी (स्कन्दपुराण, ७.३५.२६) से अभिव्यक्त किया गया है । ऐतिहासिक तथ्यों में कतिपय जातियों अथवा वंशों का वर्णन किया गया है, जिनमें भरत, कुरु और पुरु प्रमुख हैं, जिनका ऋग्वेद में सरस्वती नदी से घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है । इस सम्बन्ध में स्वतः ऋग्वेद में सरस्वती को 'पञ्च जाताः वर्धयन्ती' कहा गया है । चूंकि इन जातियों (वंशों) का भारत के उत्तर तथा पश्चिम भागों से सम्बन्ध प्रायः स्वीकृत है, अत एव सरस्वती इन्हीं भागों में होकर बहती थी। इस अध्याय के अन्त में 'विनशन' का निश्चिकरण किया गया है । 'विनशन' सरस्वती के भूमि में समाने का स्थान है । 'विनशन' के विषय में विद्वानों में मतैक्य नहीं है, अत एव यहाँ भिन्न-भिन्न मत प्रस्तुत किये गये हैं । इम्पीरियल गजेटियर में पटियाला राज्य में 'विनशन' प्रदर्शित हैं । आज के विद्वान् तथा भूतत्व-वेत्ता 'घघ्घर केनाल' को प्राचीन सरस्वती का मार्ग स्वीकार करते हैं। प्रकृत शोध-प्रबन्ध में यही मत स्वीकार किया गया है । प्रयाग में सरस्वती का मिलन नहीं होता है, पर यह निश्चित है कि प्राचीन काल में सरस्वती के दो भाग हो गये थे, जिनमें से एक भाग यमुना में मिल गया था। इस प्रकार सरस्वती तथा यमुना संयुक्त रूप से गङ्गा से प्रयाग में मिलती हैं । अन्त में अक्षांश तथा देशान्तर रेखाओं से सरस्वती के मार्ग को कतिपय विशिष्ट स्थानों से होकर जाता हुआ दिखाया गया है। .
द्वितीय अध्याय 'ऋग्वेद में सरस्वती का स्वरूप' है । यहाँ सर्वप्रथम सरस्वती के भौतिक पक्ष (स्थूल पक्ष-नदी-रूप) को प्रस्तुत किया गया है तथा दैवी रूप का भी प्रस्तुतीकरण किया गया है । इस अध्याय से ज्ञात होता है कि ऋग्वेद में अनेक स्थलों पर सरस्वती को नदी-रूप में प्रस्तुत किया गया है । भौतिक सन्दर्भ में सरस्वती के अङ्गों, सौन्दर्य आदि का वर्णन किया गया है । उसके सौन्दर्य की अभिव्यक्ति करने वाले शब्द 'सुयमा', 'शुभ्रा', 'सुपेशस्' आदि हैं । तदन्तर सरस्वती के मानसिक पक्ष को स्पष्ट किया गया है । इस सन्दर्भ से सरस्वती को 'धियावसुः', 'चोदयित्री सुनतानाम', 'साधयन्ती धियम्', आदि कहा गया है । मानसिक पक्ष के बाद सरस्वती का सामाजिक पक्ष उभारा गया है । इसके भीतर सरस्वती को एक माता, बहिन, पत्नी, पुत्री तथा सखी के रूप में प्रस्तुत किया गया है। माता के सम्बन्ध से उसे अम्बितमा, सिन्धुमाता, माता आदि कहा गया है । बहिन के रूप से उसे सप्तस्वसा, सप्तधातुः, सप्तथी, त्रिथस्था, स्वसख्या, ऋतावरी, आदि कहा गया है । पत्नी के रूप में वह वीरपत्नी, वृष्णः पत्नी, मरुत्वती, आदि है । पावीरवी उसके पुत्री-रूप को व्यक्त करता है । 'मरुत्सखा', 'सख्या' और 'उत्तरा सखिभ्यः' से उसका सखी-रूप ज्ञात होता है । चौथे शीर्षक के अन्तर्गत सरस्वती के प्रमुख-प्रमुख कार्यों का विवेचन किया गया है। इस दिशा में सर्व