Book Title: Samaz se Prapta Bramhacharya Purvardh
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Dada Bhagwan Aradhana Trust

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Page 16
________________ अनंत जन्मों की कमाई का उच्च उपादान लेकर आता है, मोक्ष के लिए, और विषय के पीछे उसे क्षणभर में ही खो देता है!! अरेरे! हे मानव! तेरी समझ कैसे आवृत हो गई?! मनुष्य निरालंब नहीं रह सकता। निरालंब तो सिर्फ ज्ञानीपुरुष ही रह सकते हैं ! उनके अलावा बाकी लोग बुद्धि के आशय में स्त्री, पुत्रादि के टेन्डर भरकर ही लाते हैं, जिससे उनके बिना उन्हें नहीं चलता। माँगी थी सिर्फ स्त्री, लेकिन साथ-साथ आ गए सास, ससुर, साला, साली, ममेरे ससुर, चचेरे ससुर। बड़ा लंगर लग गया! 'अरे, मैंने तो एक स्त्री ही माँगी थी और यह लश्कर कहाँ से आ गया?!' 'अरे, स्त्री कहीं ऊपर से टपककर आती है। वह आएगी तो साथ-साथ यह लश्कर आएगा ही न! तुझे क्या पता नहीं था?' इसी को कहते हैं अभानता! परिणाम का विचार ही नहीं आता कि एक विषय के पीछे कितने लंबे लश्कर की लाइन लग जाती है!! अरे, घानी के बैल की तरह पूरी जिंदगी बीत जाती है उसके पीछे! किसी ने सही बात सिखाई ही नहीं। बचपन से ही माँ-बाप या बुजुर्ग दिमाग़ में डालते रहते हैं कि बहू तो ऐसी लाएँगे और शादी किए बिना तो चलेगा ही नहीं और वंश तो चलता ही रहना चाहिए। आत्मसुख चखने के बाद विषयसुख फीके लगते हैं, जलेबी खाने के बाद चाय कैसी लगती है? जीभ का विषय 'ओ के' कर सकते हैं, लेकिन बाकी सब में तो कुछ बरकत है ही नहीं। मात्र कल्पनाएँ ही हैं सारी! घृणा उपजाए, ऐसी चीज़ है विषय! ___ पाँचों इन्द्रिय में से किसी को भी विषय भोगना अच्छा नहीं लगता। आँखों को देखना अच्छा नहीं लगता, इसलिए अंधेरा कर देते हैं। नाक को भी बिल्कुल अच्छा नहीं लगता। जीभ की तो बात ही क्या करनी? बल्कि उल्टी हो जाए, ऐसा होता है। स्पर्श करना भी अच्छा नहीं लगता, फिर भी स्पर्श सुख मानते हैं! किसी को भी अच्छा नहीं लगता फिर भी किस आधार पर विषय भोगते हैं, वही आश्चर्य है न?! लोकसंज्ञा से ही इसमें पड़े हैं! 15

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