Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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दोनों साथ-साथ नहीं हो सकते क्योंकि ये भिन्न-भिन्न परिणाम साध्य हैं । परन्तु अशुभ प्रकृतियों में विशुद्धि से स्थिति व अनुभाग दोनों श्रपकर्षण को प्राप्त होते हैं तथा इसके विपरीत संक्लेश से दोनों ही युगपत् उत्कर्षण को प्राप्त होते हैं ( दोनों ही अशुभ होने से । अतः उक्त पुस्तक १४ का कथन अशुभ प्रकृतियों को लक्ष्यगत रख कर ही किया है अन्यथा शुभ प्रकृतियों पर यह कथन लागू नहीं होता। ऐसा हमारा चिन्तन है श्रागमज्ञ सत्य व अनुकूल लगे तो ही ग्रहण करें और हमें अज्ञ जानकर क्षमा करें।"
(३) पृष्ठ ५५४ पर ब्र० पन्नालालजी की शंका के समाधान में लिखा है कि कृष्ण की अकाल मृत्यु नहीं हुई । परन्तु राजवार्तिक २/५३।६ में लिखा है कि "अन्तस्य चक्रधरस्य ब्रह्मदत्तस्य वासुदेवस्य च कृष्णस्य अन्येषां च तादृशानां बाह्यनिमित्तवशादायुरपर्वतदर्शनात्' अर्थात् श्रन्तिम चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त और नारायण कृष्ण तथा र ऐसे पुरुषों की श्रायु बाह्य कारणवश अपवर्तन (घात) को प्राप्त हुई देखी जाती है [ अतः इससे ऐसा भासित होता है कि पूर्व में कृष्ण और ब्रह्मदत्त ने श्रायुबन्ध नहीं किया था ] ।
(४) पृष्ठ १३६३ पर मुद्रित शंका-समाधान के विषय में इतना निवेदन करना है कि न्यायाचार्य पण्डित दरबारीलालजी कोठिया का भी यही पवित्र अभिप्राय था कि दुनियां के सभी एकान्त ( अर्थात् कथंचित् को साथ लिए हुए एकान्त ) मिलकर अनेकान्त को जन्म देते हैं ।" शंकाकार की शंका का मुख्तार सा० ने अपनी शैली में समाधान किया है, परन्तु इससे कोई यह न समझे कि कोठियाजी का मत विपरीत है ।
ग्रंथ में शंकाकारों के प्रश्न / शंकाएँ कहीं कहीं उपालम्भात्मक एवं दोषान्वेषण परक भी देखने को मिलेंगे परन्तु इससे पाठक किसी विद्वान् पर श्राक्षेप न समझे । शंकाकार तो अपनी समझ के अनुसार ही लेखादि का अभिप्राय समझ कर लेखक के मूलहार्द को नहीं पकड़ते हुए उपरि-उपरि तौर से शंकाएँ कर लेते हैं ।
ग्रंथ में पौने दो सौ (१७५) शंकाकारों की शंकाओं का संकलन है, जिनकी अकारादि क्रम से सूची दूसरी जिल्द के परिशिष्ट भाग में दी गई है । समाधाता पं० रतनचन्दजी मुख्तार भी ग्रंथ के पृ० संख्या ४७० र ६७६ पर स्वयं शंकाकार बने हैं और उनकी शंकाओंों का समाधान पूज्य क्षुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी महाराज ने किया है ।
श्राभार
'पं० रतनचन्द मुक्तार : व्यक्तित्व और कृतित्व' जैसे वृहदाकार ग्रन्थ की प्रकाशन योजना को मूर्तरूप प्रदान करने में हमें अनेक महानुभावों का प्रचुर प्रोत्साहन एवं सौहार्दपूर्ण सहयोग मिला है। यहाँ उन सबका कृतज्ञतापूर्वक स्मरण करना हमारा नैतिक दायित्व है ।
१. " यहाँ यह ध्यान रहे कि सापेक्ष मिथ्यादर्शनों ( एकान्तों ) के समूह को भद्र कहा है, निरपेक्ष मिथ्यादर्शनों ( एकान्तों ) के समूह को नहीं ।"
- प्रमुख जैन न्यायग्रंथकार और उनके न्याय ग्रंथ : पृ. ५ : लेखक द. ला. कोठिया
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