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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-प्रय लोकदिखाऊ क्षमा मांगना और जहां के जहां रहना उसको क्षमायाचना नहीं, धूर्तता समझना चाहिये । जहां वैमनस्य भावना होती है, वहां क्षमा याचना नहीं होती। मन को सर्वथा विरोध या त्रैमनस्य की दुर्भावना से हटा लेना और फिर कभी वैसी भावना नहीं आने देना, यही क्षमाप्रार्थना आत्मविकास करनेवाली है। अतः इस प्रकारकी क्षमाप्रार्थना करने के लिये सदोद्यत रहना अधिक लाभ प्रदायक है और यही क्षमावीर पुरुषों का आभूषण कही जाती है।
५२ तुम्बे का पात्र मुनिराज के हाथ में जाकर सुपात्र बन जाता है, संगीतज्ञों के द्वारा विशुद्ध वांस में वह जोड़ा जा कर मधुर-घर का साधन बन जाता है, दोराओं से बंध कर समुद्र या नदी को पार कराने का कारण बन जाता है और मदिरा-मांसार्थी लोगों के हाथ जाकर रुधिर या मांस र बने का भाजन बन जाता है। इसी प्रकार मनुष्य सज्जन और दुर्जन की संगति में पढ़ कर गुग या अवगुण का पात्र बन जाता है। अतः मनुष्य को सदा अच्छी संगति में ही रहना चाहिये।
५३ विषमिश्रित भोजन को देख कर चकोर पनी अपने नेत्रों को मींच लेता है, हंस कोलाहल करने लगता है, सारिका वमन करने लगती है, तोता आक्रोश में आ जाता है, बन्दर विष्टा करने लगता है, कोकिल पक्षी मर जाता है, कौंच पक्षी नाचने लगता है, नकुल तथा कौआ प्रसन्न होने लगता है; अतः जीवन को सुखी रखने के लिये सावधानी से संशोध कर भोजन करना चाहिये।
५४ चार्वाक-नास्तिक मती प्रत्यक्ष प्रमाण को, बौद्धमती प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द-इन तीन प्रमाणों को, अक्षपाद-नैयायिकमती प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द और उपमानइन चार प्रमाणों को, प्रभाकरमती तथा भट्टानुयायी प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द, उपमान और अर्थापत्ति-इन पांच प्रमाणों को और जैनधर्मावलम्बी प्रत्यक्ष और परोक्ष इन दो प्रमाणों को मानते हैं। जैनों के सिवाय शेष मत एकान्त वस्तुस्थिति के समर्थक हैं। जैनी अनेकान्त. दृष्टि से वस्तुस्थिति के समर्थक है-जो सर्व प्रकार से यथार्थ है।
५५ गृहस्थों के साथ परस्पर अकारण बातों में समय बिताना, हँसी-मजाक करना, आक्रोश वचन बोलना, कटु-प्रपंच रचना, वस्तु लेकर नहीं दी, कहना, बात-बात में हंसना और भोजन करते, पेशाब करते तथा क्रियानुष्ठान करते बोलना, ये सभी बातें असत्यवादिता के ही अंग हैं। इन बातों के आचरण से द्वितीय महाव्रत का भंग होता है । इन बातों से गृहस्थों के टुकड़े भारी पडते हैं और उनका बदला भिस्ती के घर मैंसा होकर चुकाना पड़ता है।