Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 01
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् आर्यभाषा-अर्थ-(धातुलोपे) यदि धातु के अवयव का लोप करनेवाला (आर्धधातुके) आर्धधातुक प्रत्यय परे हो तो (इक:) इक् के स्थान में (गुणवृद्धी) गुण और वृद्धि (न) नहीं होती है।
उदा०-गुण-(इ) चेचियः। अधिक चुननेवाला। लोलुवः। अधिक काटनेवाला। पोपुव: । अधिक पवित्र करनेवाला। वृद्धि:-(ऋ) मरीमृजः । अधिक शुद्ध करनेवाला।
सिद्धि-(१) चेचियः। चेचिय+अच्। चेचिय+अ। चेचिय+सु। चेचियः। यहां यङन्त चिञ् चयने (स्वा००उ०) धातु से नन्दिग्रहिपचादिभ्यो ल्युणिन्यचः' (३।१।१३४) से अच् प्रत्यय करने पर यङोऽचि च' (२।४१७४) से यङ् का लुक हो जाता है। यङ् का लोप धातु के एक अवयव का लोप है और उसका लोप करनेवाला 'अच्' प्रत्यय आर्धधातुक है। यङ् का लोप होने के पश्चात् आर्धधातुक अच् प्रत्यय के परे रहने पर चेचि' धातु के इक् को सार्वधातुकार्धधातुकयोः' (७।३।८४) से गुण प्राप्त होता है। उसका इस सूत्र से प्रतिषेध किया गया है। तत्पश्चात् 'अचि अनुधातुभ्रुवां' (६।४।७७) से इयङ् आदेश हो जाता है।
(२) लोलुवः । लोलूय+अच् । लोलू+अ। लोल उवङ्+अ। लोलुव्+अ। लोलुवः । यहां यडन्त लूज लवने (क्रया०3०) धातु से पूर्ववत् अच् प्रत्यय और यङ् का लुक् हो जाने पर सार्वधातुकार्धधातुकयोः' (७।३।८४) से गुण प्राप्त होता है। उसका इस सूत्र से प्रतिषेध किया गया है। तत्पश्चात् 'अचि शुनुधातु वा०' (६।४१७७) से उवङ् आदेश हो जाता है। इसी प्रकार पूज पवने (क्रया उ०) धातु से 'पोपुवः' शब्द सिद्ध होता है।
(३) मरीमृजः । मरीमृज्+अच् । मरीमृ+अ। मरीमृज+सु। मरीमृजः। यहां यङन्त मजूष शुद्धौ (अदा०प०) धातु से पूर्ववत् अच् प्रत्यय मृजेर्वृद्धिः' (७।२।११४) से धातुस्थ इक (ऋ) को वृद्धि प्राप्त होती है, उसका इस सूत्र से प्रतिषेध किया गया है।
(५) क्ङिति च।५। प०वि०-क्ङिति ७१। च अव्ययपदम्।।
स०-गश्च, कश्च, डश्च ते क्क्ङ:, इच्च इच्च इच्च ते इत: । क्क्ङ इतो यस्य स क्क्डित्, तस्मिन्-क्ङिति। (इतरेतरद्वन्द्वगर्भितबहुव्रीहिः)।
अनु०-इको गुणवृद्धी, न इति चानुवर्तते। अन्वय:-क्ङिति च इको गुणवृद्धी न।
अर्थ:-गिति किति ङिति च प्रत्यये परत: इक: स्थाने गुणवृद्धी न भवतः।
उदा०-(गिति) जिष्णु: । भूष्णुः । (किति) चित: । चितवान् । स्तुत:।
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