Book Title: Padmapuran Part 3
Author(s): Dravishenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 12
________________ 10 पद्मपुराण चौरासीवाँ पर्व त्रिलोकमण्डन हाथी को राम-लक्ष्मण वश कर लेते हैं। सीता और विशल्या के साथ उस गजराज पर सवार हो भरत राजमहल में प्रवेश करते हैं। उसके क्षुभित होने से नगर में जो क्षोभ फैल गया था वह दूर हो जाता है। चार दिन बाद महावत आकर राम-लक्ष्मण के सामने त्रिलोकमण्डन हाथी की दुःखमय अवस्था का वर्णन करते हैं। वे कहते हैं कि हाथी चार दिन से कुछ नहीं खा-पी रहा है और दुःख भरी साँसें छोड़ता रहता है। पचासीवाँ पर्व अयोध्या में देशभूषण केवली का अगमन होता है । सर्वत्र आनन्द छा जाता है । सब लोग वन्दना के लिए जाते हैं । केवली के द्वारा धर्मोपदेश होता है । लक्ष्मण प्रकरण पाकर त्रिलोकमण्डन हाथी के क्षुभित होने, शान्त होने तथा आहार- पानी छोड़ने का कारण पूछता है । इसके उत्तर में केवली भगवान् विस्तार से हाथी और भरत के भवान्तरों का वर्णन करते हैं। छयासीवाँ पर्व महामुनि देशभूषण के मुख से अपने भवान्तर सुन भरत का वैराग्य उमड़ पड़ता और वे उन्हीं के पास दीक्षा ले लेते हैं । भरत के अनुराग से प्रेरित हो एक हज़ार से भी कुछ अधिक राजा दिगम्बर दीक्षा धारण कर लेते हैं । भरत के निष्क्रान्त हो जाने पर उसकी माता केकया बहुत दुःखी होती है । यद्यपि राम-लक्ष्मण उसे बहुत सान्त्वना देते हैं तथापि वह संसार से इतनी विरक्त हो जाती है कि तीन सौ स्त्रियों के साथ आर्यिका की दीक्षा लेकर ही शान्ति का अनुभव करती है । सतासीवाँ पर्व त्रिलोकमण्डन हाथी समाधि धारण कर ब्रह्मोत्तर स्वर्ग में देव होता है और भरत मुनि अष्टकर्मों का क्षय कर निर्वाण प्राप्त करते हैं। अठासीवाँ पर्व सब लोग भरत की स्तुति करते हैं। सभी राजा राम और लक्ष्मण का राज्याभिषेक करते हैं । राज्याभिषेक के अनन्तर राम-लक्ष्मण अन्य राजाओं को देशों का विभाग करते हैं। नवासीवाँ पर्व राम और लक्ष्मण शत्रुघ्न से कहते हैं कि तुझे जो देश इष्ट हो उसे ले ले । शत्रुघ्न मथुरा लेने की इच्छा प्रकट करता है। इस पर राम-लक्ष्मण वहाँ के राजा मधुसुन्दर की बलवत्ता का वर्णन कर अन्य कुछ लेने की प्रेरणा करते हैं। परन्तु शत्रुघ्न नहीं मानता। राम-लक्ष्मण बड़ी सेना के साथ शत्रुघ्न को मथुरा की ओर रवाना करते हैं। वहाँ जाने पर मधु के साथ शत्रुघ्न का भीषण युद्ध होता है । अन्त में हाथी पर बैठा-बैठा मधु घायल अवस्था में ही विरक्त हो केश उखाड़कर दीक्षा ले लेता है। शत्रुघ्न यह दृश्य देख उसके चरणों में गिरकर क्षमा माँगता है । अनन्तर शत्रुघ्न राजा बनता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only १३३-१३५ १३६-१४६ १५०-१५२ १५३-१५४ १५५-१५८ १५६-१६७ www.jainelibrary.org

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