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विषयानुक्रमणिका
करता है तथा समस्त विद्याधरों और सेना के साथ उन्हें भोजन कराता है। विभीषण राम और लक्ष्मण का अभिषेक करना चाहता है, तब वे कहते हैं-'पिता के द्वारा जिसे राज्य प्राप्त हुआ था ऐसा भरत अभी अयोध्या में विद्यमान है उसी का राज्याभिषेक होना चाहिए।' राम-लक्ष्मण वनवास के समय विवाहित स्त्रियों को बुला लेते हैं और आनन्द से लंका में निवास करने लगते हैं। लंका में रहते हुए उन्हें छह वर्ष बीत गय हैं। मनिराज इन्द्रजित और मेघवाहन का मोक्ष पधारना । मय मुनिराज के माहात्म्य का वर्णन।
६३-१०८ इक्यासीवाँ पर्व अयोध्या में पुत्र-विरहातुरा कौशल्या निरन्तर दुःखी रहती है। पुत्र के सुकुमार शरीर को वनवास के समय अनेक कष्ट उठाने पड़ रहे होंगे यह विचारकर वह विलाप करने लगती है। उसी समय आकाश से उतरकर नारद उसके पास जाते हैं तथा विलाप का कारण पूछते हैं। कौशल्या सब कारण बताती है और नारद शोकनिमग्न हो राम-लक्ष्मण तथा सीता का कुशल समाचार लाने के लिए चल पड़ते हैं। नारद लंका में पहुंचकर उनके समीप कौशल्या और सुमित्रा के दुःख का वर्णन करते हैं। माताओं के दुःख का श्रवण कर राम-लक्ष्मण अयोध्या की ओर चलने के लिए उद्यत होते हैं पर विभीषण चरणों में मस्तक झुकाकर सोलह दिन तक और ठहरने की प्रार्थना करता है। राम जिस किसी तरह विभीषण की प्रार्थना स्वीकार कर लेते हैं। इस बीच विभीषण विद्याधर कारीगरों को भेजकर अयोध्यापुरी का नव-निर्माण कराता है। भरपूर रत्नों की वर्षा करता है और विद्याधर दूत भेजकर राम-लक्ष्मण की कुशल वार्ता भरत के पास भेजता है।
१०६-११७ व्यासीवाँ पर्व सोलह दिन बाद राम पुष्पक विमान में आरूढ़ हो सूर्योदय के समय अयोध्या के लिए प्रस्थान करते हैं। राम मार्ग में आगत विशिष्ट-विशिष्ट स्थानों का सीता के लिए परिचय देते जाते हैं। अयोध्या के समीप आने पर भरत आदि बड़े हर्ष के साथ उनका स्वागत करते हैं। अयोध्यावासी नर-नारियों के उल्लास का पार नहीं रहता। राम-लक्ष्मण के साथ सुग्रीव, हनुमान, विभीषण, भामण्डल तथा विराधित आदि भी आये हैं। लोग दूसरे को उनका परिचय दे रहे हैं। कौशल्या आदि चारों माताएँ राम-लक्ष्मण का आलिंगन करती हैं। पुत्रों का माताओं को प्रणाम करना।
११८-१२२ तेरासीवाँ पर्व राम-लक्ष्मण की विभूति का वर्णन। भरत यद्यपि डेढ़ सौ स्त्रियों के स्वामी हैं, भोगोपभोग से परिपूर्ण सुन्दर महलों में उनका निवास है तथापि संसार से सदा विरक्त रहते हैं। वे राम-वनवास के पूर्व ही दीक्षा लेना चाहते थे पर ले न सके। अब उनका वैराग्य प्रकृष्ट सीमा को प्राप्त हो गया है। संसार में फँसानेवाली प्रत्येक वस्तु से उन्हें निर्वेद उत्पन्न हो गया है। राम-लक्ष्मण ने बहुत रोका। केकया बहुत रोयी चीखी परन्तु उन पर किसी का प्रभाव नहीं होता। राम-लक्ष्मण और भरत की स्त्रियों ने राग-रंग में फँसा कर रोकना चाहा पर सफल नहीं हो सकी। इसी बीच में त्रिलोकमण्डन हाथी बिगड़कर नगर में उपद्रव करता है। प्रयत्न करने पर भी वह शान्त नहीं होता। अन्त में भरत के दर्शन कर वह शान्त हो जाता है।
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