Book Title: Padmapuran Part 3
Author(s): Dravishenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 10
________________ पद्मपुराण सतहत्तरवाँ पर्व रावण की मृत्यु से विभीषण शोकात हो मूर्छित हो जाता है, आत्मघात की इच्छा करता है और करुण विलाप करता है। रावण की अठारह हज़ार स्त्रियाँ रणभूमि में आकर रावण के शव से लिपटकर विलाप करती हैं। समस्त आकाश और पृथिवी शोक से व्याप्त हो जाती है। राम लक्ष्मण, भामण्डल तथा हनूमान् आदि सब को सान्त्वना देते हैं। प्रसंगवश प्रीतिकर की संक्षिप्त कथा कही जाती है। ७१-७६ अठहत्तरवाँ पर्व राम कहते हैं, 'विद्वानों का वैर तो मरणपर्यन्त ही रहता है अतः अब रावण के साथ वैर किस बात का ! चलो, उसका दाह-संस्कार करें।' राम की बात का सब समर्थन करते हैं और रावण के संस्कार के लिए सब उसके पास पहुँचते हैं। मन्दोदरी आदि रानियाँ करुण विलाप करती हैं। सब उन्हें सान्त्वना देकर रावण का गोशीर्ष आदि चन्दनों से दाह-संस्कार कर पद्म सरोवर जाते हैं। वहाँ भामण्डल आदि के संरक्षण में भानुकर्ण, इन्द्रजित् तथा मेघवाहन लाये जाते हैं। ये सभी अन्तरंग से मुनि बन जाते हैं। राम और लक्ष्मण की ये प्रशंसा करते हैं। राम-लक्ष्मण भी इन्हें पहले के ही समान भोग भोगने की प्रेरणा करते हैं पर ये भोगाकांक्षा से उदासीन हो जाते हैं। लंका में सर्वत्र शोक और निर्वेद छा जाता है। जहाँ देखो वहाँ अश्रुधारा ही प्रवाहित दिखती है। दिन के अन्तिम प्रहर में अनन्तवीर्य नामक मुनिराज लंका में आते हैं। वे वहाँ कुसुमोद्यान में ठहर जाते हैं। छप्पन हज़ार आकाशगामी उत्तम मुनिराज उनके साथ रहते हैं। रात्रि के पिछले पहर में अनन्तवीर्य मुनिराज को केवलज्ञान उत्पन्न हो जाता है। देवों द्वारा उनका केवलज्ञान महोत्सव किया जाता है। भगवान् मुनिसुव्रत जिनेन्द्र का गद्यकाव्य द्वारा पंचकल्याणक वर्णनरूप संस्तवन होता है। केवली की दिव्यध्वनि खिरती है। इन्द्रजित. मेघवाहन. कम्भकर्ण और मन्दोदरी अपने भवान्तर पूछते हैं। अन्त में इन्द्रजित्, मेघवाहन, भानुकर्ण तथा मधु आदि निर्ग्रन्थदीक्षा धारण कर लेते हैं। मन्दोदरी तथा चन्द्रनखा आदि भी आर्यिका के व्रत ग्रहण कर लेती हैं। ७७-८७ उन्यासीवाँ पर्व राम और लक्ष्मण महावैभव के साथ लंका में प्रवेश करते हैं। राम के मनोमुग्धकारी रूप को देखकर स्त्रियाँ परस्पर उनकी प्रशंसा करती हैं। सीता के सौभाग्य को सराहती हैं। राजमार्ग से चलकर राम उस वाटिका में पहुँचते हैं जहाँ विरहव्याधिपीडिता दुर्बलशरीरा तीता स्थित हैं। सीता राम के स्वागत के लिए खड़ी हो जाती हैं। राम बाहुपाश से सीता का आलिंगन करते हैं। लक्ष्मण विनीतभाव से सीता के चरणयुगल का स्पर्श कर सामने खड़े हो जाते हैं। सीता के नेत्रों से वात्सल्य के अश्रु निकल आते हैं। आकाश में खड़े देव विद्याधर, राम और सीता के समागम पर हर्ष प्रकट करते हुए पुष्पांजलि तथा गन्धोदक की वर्षा करते हैं। 'जय सीते ! जय राम !' की ध्वनि से आका ठता है। ८८-६२ अस्सीवाँ पर्व सीता को साथ ले श्री राम हाथी पर सवार हो रावण के महल में जाते हैं। वहाँ श्री शान्तिनाथ जिनालय में वे शान्तिनाथ भगवान् की भक्तिभाव से स्तुति करते हैं। विभीषण तथा रावण परिवार को सान्त्वना देते हैं। विभीषण अपने भवन में जाता है और अपनी विदग्धा रानी को भेजकर श्रीराम को निमन्त्रित करता है। श्रीराम सपरिवार उसके भवन में आते हैं। विभीषण अर्घावतारण कर उनका स्वागत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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