Book Title: Padmapuran Part 3
Author(s): Dravishenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 8
________________ पद्मपुराण जब लोग रामचन्द्र जी से इस विषय में सलाह लेते तो वे स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि जो नियम लेकर जिनमन्दिर में बैठा है उस पर यह कुकृत्य करना कैसे योग्य हो सकता है। 'राम तो महापुरुष हैं, वे अधर्म में प्रवृत्ति नहीं करेंगे' ऐसा निश्चय कर विद्याधर राजा स्वयं तो नहीं जाते हैं परन्तु वे अपने कुमारों को उपद्रव हेतु लंका की ओर रवाना कर देते हैं। कुमार लंका में घोर उपद्रव करते हैं जिससे लंकावासी भयभीत हो जिनालय में आसीन रावण की शरण में पहुँचते हैं परन्तु रावण ध्याननिमग्न है। लोग भयभीत थे इसलिए जिनालय के शासनदेव विक्रिया द्वारा कुमारों को रोक लेते हैं। उधर रामचन्द्र जी के शिविर में जो जिनालय थे उनके शासनदेव रावण के शान्ति जिनालय सम्बन्धी शासनदेवों के साथ युद्धकर उन्हें रोकने का प्रयत्न करते हैं। तदनन्तर पूर्णभद्र और मणिभद्र नामक यक्षेन्द्र रावण के ऊपर आगत उपद्रव का निवारण कर कुमारों को खदेड़ देते हैं और रामचन्द्र जी को उनके कुकृत्य का उलाहना देते हैं। सुग्रीव यथार्थ बात बतलाता है और अर्यावतारण कर उन्हें शान्त करता है। तदनन्तर लक्ष्मण के कहने से दोनों यक्ष यह स्वीकार कर लेते हैं कि वे नगरवासियों को अणमात्र भी कष्ट न देकर रावण को ध्यान से विचलित करने का प्रयत्न कर सकते हैं। १६-२३ इकहत्तरवाँ पर्व यक्षेन्द्र को शान्त देख अंगद लंका देखने के लिए उद्यत होता है। स्कन्द तथा नील आदि कुमार भी उसके साथ लग जाते हैं। इन समस्त कुमारों का लंका में प्रवेश होता है। अंगद की सुन्दरता देख लंका की स्त्रियों में हलचल मच जाती है। रावण के भवन में कुमारों का प्रवेश होता है। भवन का अद्भुत वैभव उन्हें आश्चर्यचकित कर देता है। वे सब शान्ति-जिनालय में जिनेन्द्र-वन्दना करते हैं। शान्तिनाथ भगवान् के सम्मुख अर्धपर्यंकासन से बैठकर रावण विद्या सिद्ध कर रहा है। अंगद के द्वारा नाना प्रकार के उपद्रव किये जाने पर भी रावण अपने ध्यान से विचलित नहीं होता है और उसी समय उसे बहुरूपिणी विद्या सिद्ध हो जाती है। रावण को विद्या सिद्ध देख अंगद आदि आकाश-मार्ग से उड़कर रामचन्द्र जी की सेना में जा मिलते हैं। २४-३० बहत्तरवाँ पर्व रावण की अठारह हज़ार स्त्रियाँ अंगद के द्वारा पीड़ित होने पर रावण की शरण में जा अपना दुःख प्रकट करती हैं। रावण उन्हें सान्त्वना देता है। दूसरे दिन रावण बड़े उल्लास के साथ प्रमदवन में प्रवेश करता है। सीता के पास बैठी विद्याधरियाँ उसे रावण की ओर आकृष्ट करने का प्रयत्न करती हैं। सीता रावण की बलवत्ता देख अपने दुर्भाग्य की निन्दा करती है। रावण सीता को भय और स्नेह के साथ अपनी ओर आकृष्ट करना चाहता है पर सीता रावण से यह कहकर कि हे दशानन ! युद्ध में बाण चलाने के पूर्व राम से मेरा यह सन्देश कह देना कि आपके बिना भामण्डल की बहिन घुट-घुटकर मर गयी है...मर्छित हो जाती है। रावण सीता और राम के निकाचित स्नेह-बन्धन को देख अपने ककत्य पर पश्चात्ताप करता है परन्तु युद्ध की उत्तेजना के कारण उसका वह पश्चात्ताप विलीन हो जाता है और वह युद्ध का दृढ़ निश्चय कर लेता है। ३१३८ तेहत्तरवाँ पर्व सूर्योदय होता है। रावण का मन्त्रिमण्डल उसकी हठ पर किंकर्तव्यविमूढ़ है। पट्टरानी मन्दोदरी भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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