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नियमसार
अनिष्टलाभ: खेदः । सहजचतुरकवित्वनिखिलजनताकर्णामृतस्यंदिसहजशरीरकुलबलैश्वर्यैरात्माहंकारजननो मदः । मनोज्ञेषु वस्तुषु परमा प्रीतिरेव रतिः। परमसमरसीभावभावनापरित्यक्तानां क्वचिदपूर्वदर्शनाद्विस्मयः । केवलेन शुभकर्मणा, केवलेनाशुभकर्मणा, मायया, शुभाशुभमिश्रेण देवनारकतिर्यङ्मनुष्यपर्यायेषूत्त्पत्तिर्जन्म । दर्शनावरणीयकर्मोदयेन प्रत्यस्तमितज्ञानज्योतिरेव निद्रा। इष्टवियोगेषु विक्लवभाव एवोद्वेगः । एभिर्महादोषैर्व्याप्तास्त्रयो लोकाः । एतैर्विनिर्मुक्तो वीतरागसर्वज्ञ इति। तथा चोक्तम् ह्न
सो धम्मो जत्थ दया सो वि तवो विसयणिग्गहो जत्थ ।
दसअठ्ठदोसरहिओ सो देवो णत्थि सन्देहो ।।१।। १२. अनिष्ट के लाभ से उत्पन्न होनेवाला भाव खेद है।
१३. सर्व जनों के कानों में अमृत उडेलनेवाला सहज चतुराई से भरा कवित्व, सुन्दर शरीर, उत्तम कुल, बल तथा ऐश्वर्य के कारण उत्पन्न होनेवाला अहंकार ही मद है।
१४. मनोज्ञ वस्तुओं में परम प्रीति ही रति है।
१५. परमसमरसीभाव की भावना रहित जीवों को, पहले कभी नहीं देखने के कारण होनेवाला भाव विस्मय (आश्चर्य) है।
१६. शुभकर्म से देवपर्याय में, अशुभकर्म से नारकपर्याय में, माया से तिर्यंचपर्याय में और शुभाशुभ मिश्रकर्म से मनुष्यपर्याय में उत्पन्न होना जन्म है।
१७. दर्शनावरणी कर्म के उदय से ज्ञानज्योति का अस्त हो जाना निद्रा है। १८. इष्ट के वियोग में घबराहट का होना ही उद्वेग है।
यद्यपि इन अठारह दोषों से तीन लोक व्याप्त है अर्थात् तीन लोक में रहनेवाले सभी संसारी जीव उक्त अठारह दोषों से ग्रस्त हैं; तथापि वीतरागसर्वज्ञदेव इन दोषों से विमुक्त हैं।"
उक्त सम्पूर्ण कथन का सार मात्र इतना ही है कि वीतरागी-सर्वज्ञ अरहंतदेव के उक्त अठारह दोष नहीं होते; अत: वे पूर्णत: निर्दोष हैं ।।६।। ___ छठवीं गाथा की उक्त टीका लिखने के उपरान्त मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव ‘तथा चोक्तम् ह्न तथा कहा भी गया है' ह्न लिखकर एक गाथा उद्धृत करते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(दोहा) जहाँ दया वह धर्म है जहाँ न विषय विकार |
वह तप अठारह दोष बिन देव होंय अवधार||१|| १. अनुपलब्ध है।