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जीव अधिकार
कस्मिकभेदात् सप्तधा भवति भयम् । क्रोधनस्य पुंसस्तीव्रपरिणामो रोषः । रागः प्रशस्तोऽप्रशस्तश्च, दानशीलोपवासगुरुजनवैयावृत्त्यादिसमुद्भवः प्रशस्तरागः, स्त्रीराजचौरभक्तविकथालापाकर्णनकौतूहलपरिणामो ह्यप्रशस्तरागः । चातुर्वर्ण्यश्रमणसंघवात्सल्यगतो मोहः प्रशस्त इतरोऽप्रशस्त एव । चिन्तनं धर्मशुक्लरूपं प्रशस्तमितरदप्रशस्तमेव । तिर्यङ्मानवानां वय:कृतदेहविकार एव जरा । वातपित्तश्लेष्मणां वैषम्यसंजातकलेवरविपीडैव रुजा । सादिसनिधनमूर्तेन्द्रियविजातीयनरनारकादिविभावव्यञ्जनपर्यायविनाश एव मृत्युरित्युक्तः । अशुभकर्मविपाकजनितशरीरायाससमुपजातपूतिगंधसम्बन्धवासनावासितर्वार्बिन्दुसंदोहः स्वेदः ।
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३. इसलोक का भय, परलोक का भय, अरक्षाभय, अगुप्तिभय, मरणभय, वेदनाभय और आकस्मिक भय ह्न इसप्रकार ये सात प्रकार के भय हैं ।
४. क्रोधी पुरुष के तीव्र परिणाम को रोष कहते हैं ।
५. राग प्रशस्त और अप्रशस्त के भेद से दो प्रकार का होता है। दान, शील, उपवास, गुरुजनों की वैयावृत्ति (सेवा) आदि से उत्पन्न होनेवाला राग प्रशस्त राग है और स्त्री, राज, चोर और भोजन संबंधी विकथायें करने और सुनने का कौतुहल परिणाम अप्रशस्त राग है ।
६. प्रशस्त और अप्रशस्त के भेद से मोह भी दो प्रकार का होता है। ऋषि, मुनि, और अनगार ह्न इन चार प्रकार के श्रमण संघ के प्रति वात्सल्य संबंधी मोह प्रशस्त मोह है और इनसे भिन्न व्यक्तियों या वस्तुओं से किया गया मोह अप्रशस्त मोह है ।
ऋद्धिधारी श्रमणों को ऋषि; अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञानी श्रमणों को मुनि; उपशम व क्षपक श्रेणी में आरूढ़ श्रमणों को यति और सामान्य साधुओं को अनगार कहते हैं ।
७. चिन्ता अर्थात् चिंतन भी प्रशस्त और अप्रशस्त के भेद से दो प्रकार का होता है । धर्मध्यान और शुक्लध्यानरूप चिन्तन प्रशस्त है और आर्तध्यान और रौद्रध्यानरूप चिन्तन अप्रशस्त है ।
८. तिर्यंचों और मनुष्यों की उम्र की अधिकता के कारण होनेवाली शरीर की जीर्णता को जरा (बुढ़ापा) कहते हैं ।
९. वात, पित्त और कफ की विषमता से उत्पन्न होनेवाली शरीर संबंधी पीड़ा को रुजा या रोग कहते हैं ।
१०. सादि - सनिधन, मूर्त इन्द्रियवाली विजातीय नरनारकादि विभाव व्यंजनपर्याय का विनाश ही मृत्यु है ।
११. अशुभकर्मोदय से उत्पन्न शारीरिक श्रम से उत्पन्न होनेवाला दुर्गंधित जलबिन्दुओं का समूह स्वेद ( पसीना ) है ।