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जीव अधिकार
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व्यवहारसम्यक्त्वस्वरूपाख्यानमेतत् । आप्तः शंकारहितः । शंका हि सकलमोहरागद्वेषादय: । आगम: तन्मुखारविन्दविनिर्गतसमस्तवस्तुविस्तारसमर्थनदक्ष: चतुरवचनसंदर्भः । तत्त्वानि च बहिस्तत्त्वान्तस्तत्त्वपरमात्मतत्त्वभेदभिन्नानि अथवा जीवाजीवास्रवसंवरनिर्जराबन्धमोक्षाणां भेदात्सप्तधा भवन्ति ।
तेषां सम्यक् श्रद्धानं व्यवहारसम्यक्त्वमिति ।
( आर्या ) भवभयभेदिनि भगवति भवतः किं भक्तिरत्र न समस्ति ।
तर्हि भवाम्बुधिमध्यग्राहमुखान्तर्गतो भवसि ।। १२ ।।
आप्त, आगम और तत्त्वों के श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है और जिसके सम्पूर्ण (अठारह) दूर हो गये हों; सम्पूर्ण गुणों का धारी वह पुरुष आप्त होता है ।
दोष
इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र "यह व्यवहार सम्यग्दर्शन के स्वरूप का व्याख्यान है । सम्पूर्ण मोह-राग-द्वेषादि भावों को शंका कहते हैं और शंका रहित व्यक्ति को आप्त कहते हैं ।
आप्त के मुखारविन्द से निकली हुईं समस्त वस्तुओं के स्वरूप को स्पष्ट करने में समर्थ वचन रचना को आगम कहते हैं ।
बहिर्तत्त्व और अन्तर्तत्त्वरूप परमात्मतत्त्व के भेद से तत्त्व दो प्रकार के हैं अथवा जीव, अजीव, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध तथा मोक्ष के भेद से तत्त्व सात प्रकार के हैं ।
उक्त आप्त, आगम और तत्त्व का सम्यक् श्रद्धान व्यवहार सम्यग्दर्शन कहा जाता है । " इसप्रकार इस गाथा और उसकी टीका में मात्र इतना ही कहा गया है कि सच्चे आप्त, आगम और तत्त्वों के श्रद्धान को व्यवहारसम्यग्दर्शन कहते हैं। जन्म, जरा आदि अठारह दोषों से रहित और वीतरागता, सर्वज्ञता आदि गुणों के धारी अरहंत-सिद्ध ही सच्चे आप्त (देव) हैं।
महाशास्त्र तत्त्वार्थसूत्र में सात तत्त्वों के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहा है और रत्नकरण्डश्रावकाचार में सच्चे देव शास्त्र - गुरु के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहा है। यहाँ उक्त दोनों बातों को मिलाकर आप्त, आगम और तत्त्वों के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कह दिया है।
देव - शास्त्र - गुरु और सप्त तत्त्व, पर और भेदरूप होने से, इनके श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन को व्यवहारसम्यग्दर्शन कहा गया है ।। ५ ॥
इस गाथा की टीका के उपरान्त भी टीकाकार, भगवान की भक्ति की प्रेरणा देनेवाला एक कलशकाव्य लिखते हैं।