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नियमसार
छुहतण्हभीरुरोसो रागो मोहो चिंता जरा रुजा मिच्चू । सेदं खेदो मदो रइ विम्हिय णिद्दा जणुव्वेगो । । ६ ।।
क्षुधा तृष्णा भयं रोषो रागो मोहश्चिन्ता जरा रुजा मृत्युः । स्वेदः खेदो मदो रतिः विस्मयनिद्रे जन्मोद्वेगौ ॥ ६ ॥ अष्टादशदोषस्वरूपाख्यानमेतत् । असातावेदनीयतीव्रमंदक्लेशकरी क्षुधा । असातावेदनीयतीव्रतीव्रतरमंदमंदतरपीडया समुपजाता तृषा । इहलोकपरलोकात्राणागुप्तिमरणवेदना
कलश का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
(दोहा)
भवभयभेदक आप्त की भक्ति नहीं यदि रंच ।
तो तू है मुख मगर के भवसागर के मध्य ||१२||
यदि भव के भय का भेदन करनेवाले इस भगवान के प्रति तुझे भक्ति नहीं है तो तू 'के मध्य रहनेवाले मगर के मुख में है ।
भवसमुद्र
इस कलश में मात्र इतना ही कहा गया है कि यदि तेरे हृदय में भवभयनाशक भगवान
की भक्ति नहीं है तो तू यह अच्छी तरह समझ लें कि तू संसार सागर में रहनेवाले मगरमच्छ
के
मुख में है ।। १२ ।।
पाँचवीं गाथा की दूसरी पंक्ति में कहा था कि आत्मा सम्पूर्ण (अठारह) दोषों से रहित होता है; अत: अब इस छठवीं गाथा में उक्त अठारह दोषों को गिना रहे हैं।
गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार हैह्र
( हरिगीत )
भय भूँव चिन्ता राग रुष रुज स्वेद जन्म जरा मरण ।
रति अरति निद्रा मोह विस्मय खेद मद तृष दोष हैं ||६||
क्षुधा, तृषा, भय, रोष, राग, मोह, चिन्ता, जरा, रोग, मृत्यु, पसीना, खेद, मद, रति, विस्मय, निन्दा, जन्म और अरति ह्न ये अठारह दोष हैं।
इस गाथा का भाव टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं "यह अठारह दोषों के स्वरूप का कथन है ।
१. असाता वेदनीय कर्म के उदय से होनेवाले भोजन की तीव्र अथवा मंद इच्छारूप क्लेशभाव को क्षुधा कहते हैं ।
२. असाता वेदनीय के उदय से तीव्र, तीव्रतर, मन्द, मन्दतर पानी पीने की इच्छाजन्य पीड़ा को तृषा कहते हैं ।