Book Title: Naishadhiya Charitam 01
Author(s): Mohandev Pant
Publisher: Motilal Banarsidass

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Page 21
________________ [ 16 ] की अपनी चीज है। सरस्वती को रूप बदले परिचाविका बनाना भी मूल कथा में कहीं नहीं है। वह कवि-कल्पना है, अन्यथा विदर्भ में कौन ऐसी सवंश स्त्रो यो जो इतने सारे अजनवी राजों का परिचय देती ? कलि के भौतिकवादी अनुयायियों द्वारा आस्तिकों, उनके धर्म, धर्म-प्रवर्तकों एवं साहित्य पर कीचड़ उछालना और बाद को देवताओं द्वारा समर्थन तथा अन्तिम सगों में वर्णित विवाहित युगल का ऐन्द्रिका अथवा मोगविलास के चित्र अथवा 'शृंगारोदन्वान्' का सतत प्रवाह सब कवि के अपने ही मस्तिष्क के निर्माण हैं। दूर क्यों आवें? काव्य का प्रारम्म ही देखिएराजा नल का उदात्त चरित्र, उनके और दमयन्ती के मध्य 'पूर्वराग' की दस कामदशायें, नल का घोड़ा, उद्यान, सरोवर, नल और हंस के मध्य करुणारस-भरा विस्तृत वार्तालाप, कुण्डननगरी, चन्द्र और मदन को दमयन्ती-कृत मामिक उपालम्म दमयन्ती के महल में अदृश्य नल की स्त्रियों से टक्कर इत्यादि-इनके बिम्बग्राही अनोखे शब्दचित्र मला मूलकथा में कहाँ हैं ? ये सब कविकल्पना-प्रसूत ही है। मूल में राजा नल हंस से दमयन्ती-प्राप्ति के कार्य में सहायता देने का वचन लेने के बाद छोड़ देते हैं, किन्तु कवि की दृष्टि में यह राजा को स्वार्थपरता दीखती है, जो उनके उम उदात्त चरित्र पर अच्छा प्रभाव नहीं डालतो, जिसके अनुसार वे दमयन्ती से नल को छोड़कर इन्द्रादि देवताओं में से किसी एक को वरने का अनुरोध करके अपने हृदय को विशालता और उदारता का परिचय देते हैं। कवि करुणा-वश हो राजा से हंस को छुरवाता है और सौजन्य-वश हंस स्वयं ही राजा को सहायता का वचन देता है। इस परिवर्तन से कवि ने राजा और हंस दोनों का चरित्र ऊँचा उठाया है। मूल में स्वर्णिल हंस कितने ही होते हैं, जिनमें से राजा एक को पकड़ कर बाद को उसे छोड़ देता है। तत्पश्चात् समी हंस कुण्डननगरी को जाते हैं जिनमें से दमयन्ती और उसकी सखियाँ अलग-अलग एक-एक हंस को पकड़ने लगती हैं, परन्तु कवि को यह घटना-क्रम पसंद नहीं। दोत्य-कर्म में निहित रहस्य की दृष्टि से वह एक ही हंस को मेजता है', जो सखियों को मण्डली में से राजकुमारी को दूर ले जाकर तव एकान्त में उससे नल-विषयक बातें करवाता है / मूल में दमयन्ती को विर हावस्था का हाल सखियाँ उसके पिता राजा भीम को कहती हैं, किन्तु यहाँ पिता स्वयं ही हाल देख जाता है जो औचित्य की दृष्टि से कवि को ठोक लगा। इसी तरह मूल में देव-दूत बनकर नल महल में जाते ही अपने को 'मैं नल हूँ' कह बैठते हैं, जबकि यहाँ वह अपने व्यक्तित्व को दूत के हम में छिपाये दमयन्ती से और दमयन्तो उनसे खुलकर लम्बी चौड़ी बाते करती है / जब दमयन्ती उनके आगे रो पड़ती है, तब जाकर नल अपनी असलियत प्रकट करते हैं। यह स्थिति दौत्य कर्म से ठीक संगत हो जाती है। यदि दमयन्ती आगन्तुक को पहले ही प्रियतम जान लेतो, तो 'पहली मुलाकात' में क्या उसे सात्त्विक भाव नहीं होते ? उसे स्वेद, स्तम्भ अथवा स्वर-भंग हो जाती। वह सहम जाती। लजा जाती। वैसी अवस्था में मला वह खुलकर प्रियतम से वे लंबी चौड़ी बातें कैसे कर पाती जो उसने दूत-रूप में आये हुए आगन्तुक से की है। साथ हो राजा नल के भीतर उठा स्वार्थ और कर्तव्य के बीच का संघर्ष कवि कैसे हमारे आगे रखता ? ऐसी अन्य भी : १–'हैमेषु हंसेष्वहमेक एव भ्रमामि मूलोकविठोकनोत्कः' ( 3.18 ) /

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