Book Title: Naishadhiya Charitam 01
Author(s): Mohandev Pant
Publisher: Motilal Banarsidass

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Page 64
________________ प्रथमः सर्गः स्थानं यासा तासाम् (20 बी० ) त्रिलोकवर्तिनीनामिति यावत् नते = नम्र भ्रवी यासा तासाम् (ब० वी०) सुन्दरीयामित्यर्थः द्विधा=द्वि-प्रकारेण मन्मथस्य-कामदेवस्य अथ च कामविकारस्य विभ्रमः-विशिष्टो भ्रमः भ्रान्तिरित्ययः अथ च विलासः, कामचेष्टा ( चेष्टालबारे भ्रान्तीच विभ्रमः' इत्यमरः) नलं दृष्ट्वा त्रिलोकसुन्दरीणां 'अयं कामदेवः' इति भ्रान्तिः अथ च कामावेशचेष्टाऽभूदित्यर्थः // 26 // व्याकरण-महीभृत् = महीं बिभर्तीति मही+/मृञ् +क्विप् कर्तरि / मन्मथः-मननम् = मत् शास्त्राद्यभ्यासशानम् तस्य मथः= मथ्नातीति /मथ+क ( मूलविभुजादिभ्यः कः) (10 तत्पु.) त्रयीत्रयोऽवयवा अत्रेति त्रि+अयच् +ङीप् / विवृण्वते-वि-/+लट् प्र० ब० / हिन्दी-उस राजा (नल ) को कामदेव की-सी कान्ति के कारण तथा उसके प्रति अपनी अभिलाषा होने के कारण तीनों लोकों की सुन्दरियों को दो प्रकार का विभ्रम ( भ्रान्ति, कामावेशचेष्टा ) हो उठा // 26 // टिप्पणी-यहाँ भी कवि ने मन्मथ और विभ्रम शब्दों में श्लेष रखा है / मन्मथ का एक अर्थ है कामदेव और दूसरा कामविकार; विभ्रम का मी एक अर्थ है बड़ी भारी भ्रान्ति और दूसरों कामचेष्टा / क्योंकि नल कामदेव-जैसा अतिसुन्दर था इसलिए स्त्रियों उसे कामदेक ही समझ बैठी, इस कारण उन्हें उसकी चाह हो गई और वे काम-चेष्टायें करने लगीं / मन्मथश्रिया में लुप्तोपमा है / पहले कामदेव का भ्रम तब काम-चेष्टा-इस तरह क्रमिक अन्वय से यथासंख्यालंकार है। विभ्रम शब्द में श्लेष होने से उसका यथासंख्य से संकर है, किन्तु लुप्तोपमा से संसृष्टि ही रहेगी // 26 // निमीलनभ्रंशजुषा हशा भृशं निपीय तं यस्त्रिदशीमिरर्जितः / अमूस्तमभ्यासमरं विवृण्वते निमेषनिःस्वैरधुनापि लोचनैः // 27 // अन्वय.. त्रिदशीमिः निमोलन-भ्रंशजुषा दृशा तम् भृशम् निपीय यः ( अभ्यास-मरः ) अजिंतः, अमूह अधुना अपि निमेष-निःस्वैः लोचनैः तम् अभ्यास-मरम् विवृण्वते / टीका-विरशीमिः= सुराङ्गनाभिः ( अमरा निर्जरा देवा त्रिदशाः' इत्यमरः) निमीन०निमीलनम् = निमेषः तस्य नंशः=अभावः इत्यर्थः (10 तत्पु० ) तम् जुषन्ते सेवन्ते इति तथोक्तया ( उप० तत्पु० ) निमेष-रहितयेत्यर्थः दृशा=नयनेन तम् नलम् भृशम् =अतिमात्रम् यथा स्यात्तथा निपीय= सतृष्णं दृष्ट्वत्यर्थः यः= अभ्यासभरः भर्जितः कृतः अमूः इमाः त्रिदश्यः अधुना भपि साम्प्रतम् अपि निमेष निर्गतं स्वम् धनम् येषां तानि निःस्वानि (प्रादि ब० वी०) दरिद्राणीत्यर्थः निमेषस्य निःस्वानि (10 तत्पु० ) निमेषरहितानीत्यर्थः तैः लोचनैः = नयनैः समं अभ्यासस्य भरम् = अतिशयम् विवृण्वतेप्रकटयन्ति, पुरा सुराङ्गनाजनेन नलं द्रष्टुं यो निनिमेषत्वाभ्यासः कृतः सोऽद्यापि तस्मिन् तिष्ठतीति मावः // 27 // ध्याकरण-त्रिदशीभि:-यहाँ त्रिशब्द पूरणार्थ में लेकर तृतीया दशा यास ताः (ब० वी०) इस तरह विग्रह करना चाहिए / अन्य प्राणियों की बाल्य शैशव तारुण्य और वार्धक्य ये चार दशाये हुआ करती हैं, लेकिन देवताओं को तीसरी दशा अर्थात् तारुण्य ही होती है। वे सदा युवा ही

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