________________ 72 नैषधीयचरिते टिप्पणी-इस श्लोक में कवि ने अलंकृत शैली का अच्छा चमत्कार मर रखा है। मल्लिनाथ आदि टीकाकारों ने यहाँ 'रूपकोत्प्रेक्षा संकरः' बताया है, जो श्लेष-गर्भित है / दाडिमी पर वियोगिनी का भारोप करके तदङ्गभूत कण्टकों पर रोमाञ्च का फलों पर स्तनों का रोम पर अनुराग का और तोतों के मुखों पर कामदेव के फूल-रूप वाणों का तादात्म्य बताकर रूपकालंकार का समस्त-वस्तुविषयक रूप चित्रित किया है जो श्लेष और उत्प्रेक्षा को साथ लिए हुए हैं किन्तु हमारे विचार से यहाँ समा. सोक्ति है। कवि का अभिप्राय 'वियोगिनो' पद से विरहिणी-मात्र बताना नहीं, प्रत्युत पक्षिगण' से 'भरी' बताना भी यहां अभीष्ट है। इस तरह यहाँ तीनों विशेषणों एवं दाडिमी गत लिग के साम्य से प्रस्तुत दाडिमी पर अप्रस्तुत विरहिणी का व्यवहार-समारोप हो रहा है। विग्रह-मेद से श्लेष के कारण विशेषण प्रस्तुत दाडिमी और अप्रस्तुत नायिका पर समान रूप से लग रहे हैं। समासोक्ति उसे कहते हैं जहाँ विशेषण-साम्य के कारण प्रस्तुत से अप्रस्तुत गम्य हो, जो यहाँ स्पष्ट ही है / इसीलिए हमने हिन्दी अनुवाद में दोनों ही यर्थ बता दिए हैं। शब्दालङ्कार यहाँ अनुप्रास है।८३।। स्मरार्धचन्द्रेषुनिभे क्रशीयसां स्फुर्ट' पलाशेऽध्वजुषां पलानात् / स वृन्तमालोकत खण्डमन्वित वियोगिहृत्खशिनि कालखण्डजम् // 84 // अन्वय-सः स्मरार्धचन्द्रेषुनिमे वियोगिहृत्-खण्डिनि क्रशीयताम् अध्व-जुषाम् पलाशनात् स्फुट पलाशे अन्वितम् वृन्तम् कालखण्डजम् खण्डम् आलोकत / टीका-सः नलः स्मरस्य= कामस्य यः अर्धचन्द्रः= अर्धचन्द्राकारः इत्यर्थः (10 तत्पु० ) इषः = बापः ( कर्मधा० ) तधिमे तत्सदृशे वियोगिनश्च वियोगिन्यश्चेति वियोगिनः ( एकशेषद्वन्दः) तेषां यत् हृद् - हृदयम् (10 तत्पु०) तत खण्डयति विदायरतीति तथोक्ते ( उपपद तत्प० ) विरहिहृदय विदारके इत्यर्थः अतिशयेन कृशा इति ऋशीयांसः तेषाम् अध्वानं मार्ग जुषते सेवन्ते इत्येवं. शीलानाम् ( उपपत्तत्पु०) प्रवासिनामित्यर्थः पलम् मांसं तस्य अशनात् = भक्षणात् (10 तत्प०) ( 'स्याच्चामिषे पलम् इत्यमरः ) स्फुटम् = प्रत्यक्षम् पलाशे= पलम् अश्नातीत्वन्वर्थ के पलाशे किंशुक पुष्पे अन्वितम् = सम्बद्धम् लग्नमित्यर्थः वृत्तम् = प्रसव-बन्धनम् ( 'वृन्तं प्रसवबन्धनम्' इत्यमरः ) कालखण्डम् = यकृत् दक्षिण-पार्श्वगतं श्यामवर्ण मांसमित्यर्थः तस्माज्जातम् इति तज्ज तदीयमिति यावत् ( उपपद तत्पु० ) खण्डम् शकलम् पालोकत - अएर त् / राशा पलाशपुष्पं तद्वन्तम्च दृष्टम् / पलाशं हि कामदेवस्यार्धचन्द्राकारशरसमानमस्ति, तत्कृष्ण-वर्णवृन्तम् तत्र लग्नं अध्वग-यकृत्-खण्डमिव प्रतीयते स्मेति मावः // 84 // व्याकरण--इनिभे-निम शब्द का समास अस्वपद-विग्रही नित्य समास कहलाता है, यह सदृशार्थ-वाचक है ( 'स्युरुत्तरपदे त्वमो। निम-सङ्काश-नीकाश-प्रतिकाशोपमादयः', इत्यमरः) / क्रशीयसाम् अतिशयेन कृश इति कृश+ई यसुन् , 'कृ' के 'ऋ' को र=कशीयान् / जुषा-/ जुष्+क्विप् कर्तरि प० / ०खएडजम् ०खण्ड-/जन् -H / 1. स्फुटे।