________________ प्रथमः सर्गः टीका-यः तडागःसरो०-सरोजिनीनाम् = कमलिनोनाम् ये स्तम्बाः= गुल्माः ('अप्रकाण्डे स्तम्ब गुल्मो' इत्यमरः) तेषां कदम्बस्य= समूहस्य केतवात् = व्याजात् ( सर्वत्र 10 तत्पु० ) रथाङ्गाः = चक्राङ्गाः हंसा इत्यर्थ; ( 'हंसास्तु = श्वेतगरुतश्चक्राङ्गा मानसौकसः' इत्यमरः ) ताम् (विष्णु क्षे ) रथाङ्गम् = चक्रम् सुदर्शनचक्रमिति यावत् तत् भजति-सेवते इति तथोक्तेन ( उपपद तत्पु० ) कमलानाम् = पद्मानाम् अन्यत्र कमलायाः=लक्ष्म्या अनुषङ्गः संसर्गः अस्यास्तीति तथोक्तेन=( तत्पु०) शिलीमुखाः=भ्रमराः तेषां स्तोमः=समूहः तस्य सखा=मित्रम् तेन भ्रमरसहितेनेत्यर्थः। अन्यत्र सदृशः तेन ( उमयत्र प० तत्पु० ) मृणालं शेषाहिः-शेषनाग इवेति मृणालशेष हि- (उपमित तत्पु०) तस्य भूः= उत्पत्तिस्थानम् तया, अन्यत्र मृणालम् = इव शेषाहिः (उपमान तत्पु० ) मूः= स्थानम् शयनस्थानमिति यावत् ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतेन (ब० वी०) शाङ्गिणा= कृष्णेन विष्णुनेति यावत् , उपमेयभूतक.दम्बरयैकवचनत्वेन शाङ्गिणेत्यत्रापि एकवचनत्वम् , वस्तुतोऽत्र जातावेकवचनं मत्वा कदम्बैः, शाङ्गिभिरिवि बहुवचनं विवक्षितं विष्णोरेकत्वे व्यतिरेकाप्रसङ्गात् / अत्र तु बहवो विष्णवः सन्तीति व्यतिरेकः, अन्वमायि = अनुगतः: अधिष्ठितः युक्त इति यावत् अस्ति / सरोजिनी-स्तम्ब-कदम्ब-कैत वेनात्र समुद्रे वहवो विष्णवः सन्तीति भावः // 111 // व्याकरण-०माजा मजतोति मज+विप् कर्तरि तृ० / शाङ्गिणा शाम् अस्यास्तीति शा+इन् / शाङ्गम् शृङ्गस्येदम् इति शृङ्ग+अण सींग का बना हुआ धनुष कृष्ण का होता है, इसीलिए उन्हें शाङ्गों कहते हैं। कृष्ण विष्णु हो होते हैं। ०सखेन ध्यान रहे कि राजन् और पथिन् शब्दों की तरह सखिन् भो समास में राम शब्द की तरह अकारान्त बन जाया करता है / अन्वयायि अनु+/या+लुङ् कर्मवाच्य / हिन्दी-जो ( तड़ाग) रथाङ्गों ( हंसों) से सेवित, कमलों से युक्त, भ्रमर -समूह साथ लिए ( तथा ) शेषनाग जैसे ( सफेद ) मृणालों के उत्पत्ति-रथानभूत कमलिनियों की झाड़ियों के समूह के ब्याज से रथाङ्ग ( चक्र) लिये, कमला ( लक्ष्मी) को साथ रखे, भ्रमर-समूह-जेसे ( काले रंग के ) तथा मृणाल के समान ( श्वेत ) शेषनाग को अपना ( शयन)-स्थान बनाये हुए कृष्ण से अनुगत (= मरा हुआ ) था // 111 // टिप्पणी-पहले समुद्र में एक हो विष्णु शेषशयन किया करते थे जबकि यहाँ हज़ारों विष्ण शेषशयन कर रहे हैं / श्लोक में शाङ्गगत एक वचन जातिपरक होने से बर्थ-वाचक है। यहाँ विष्णु बने हैं कमलिनियों के झाड़। कवि ने श्लेष द्वारा ऐसा चमत्कार दिखाया है कि विष्णुगत सभी धर्म झाड़ों में भी पाये जाते हैं मले ही विभक्ति तया समास में थोड़ा-बहुत हेरफेर क्यों न करना पड़े जैसे श्लेष में प्रायः हुआ ही करता है। किन्तु व्याकरण को दृष्टि से रथाङ्गभाना आदि तृतीयान्त विशेषय तृतीयान्त शाङ्गिणा से तो लग जाते हैं किन्तु 'सरोजिनीस्तम्बकदम्ब के साथ नहीं लग सकते, क्योंकि वह कैतव पद के साथ समस्त हो गया है। व्याकरण का नियम है-'सविशेषणानां वृत्तिन, वृत्तस्य च विशेषणायोगो न'। यहाँ समाप्त-वृत्ति हो गई है, किन्तु कवि को वहाँ भी विशेषणयोग विवक्षित है; अतः साहित्य क्षेत्र में, जैसा कि हम अन्यत्र भी देखते हैं, श्लेष-स्थलों में प्रायः विभक्ति-व्यत्यय किया जाता है। हमें भी यहाँ ऐसा ही करना पड़ा। यहाँ श्लेष, उपमा, अपहृति