Book Title: Naishadhiya Charitam 01
Author(s): Mohandev Pant
Publisher: Motilal Banarsidass

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Page 145
________________ 104 नैषधीयचरिते मल्लिनाथ ने यहाँ उत्प्रेक्षा मानी है। 'किम्' शब्द उत्प्रेक्षा-वाचकों में गिना हुआ है ही किन्तु हमा: विचार से कवि ने अप्रस्तुत की दो कोटियों जो यहाँ खसी की हैं, वे सन्देह के लिये भी पूरी बना रही हैं 'अर्थात् यह नाल-सहित स्वर्ण-कमल तो नहीं क्या ? अथवा वरुप देव का विद्रुम का मूठ वाला चंवर तो नहीं क्या ? इस तरह हम यहाँ उत्प्रेक्षा और सन्देह का संकर हो मानेंगे। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है / / 122 // कृतावरोहस्य हयादुपानही ततः पदे रेजतुरस्य बिभ्रती। तयोः प्रवालवनयोस्तथाम्बुजैनियोद्ध कामे किमु बद्धवर्मणी / / 123 / / अन्वयः-ततः हयात् कृतावरोहस्य अस्य उपानही विभ्रती पदे तयोः वनयोः प्रवालः तथा अम्बुजैः नियोधुकामे वद्ध-वर्मणी किमु ( इति ) रेजतुः। टीका-ततः= तदनन्तरम् हयात् = अश्वात् कृतः= विहितः अवरोहः = उत्तरणम् येन तथा मूतस्य ( ब० बी० ) अस्य = नलस्य उपानही पादत्राणे ( पादत्राणे उपानहीं' इत्यमरः / विनती = धारयती पदे चरणौ तयोः = प्रकृतयोः बनयोः = कानन-जलयोः ( 'नने सलिल-कानने इत्यमरः ) प्रवालै: - किसलयः तथा अम्बुजैः = कमलैः ( सह ) नियोद्ध युद्ध कर्तुम् कामः = इच्छा ययोः तथाभूते ( सती ) (20 बी० ) बद्धम् =द्धम् वर्म= कवचं याभ्यां तथा मूते (ब० वी०) किमु इति सम्भावनायाम् रेजतुः शुशुमाते उपानही धारयन्तौ नलस्य चरणौ वनस्य (काननस्य) प्रवाले: तथा वनस्य ( जलस्य ) अम्बुजैः सह युद्ध कर्तुम् बद्धकवचाविव प्रतीयेते स्मेति भावः // 123 // व्याकरण-विभ्रती भृ +शत नपुं० प्र० द्विव० अम्बुजम् अम्बुजलम् तस्माज्जायते. इति अग्बु+/जन्+ड / नियोकामे ( तुम् काम-मनसोरपि ) इस नियम से तुम् के म का लोप हिन्दी-तत्पश्चात् घोड़े से उतरे उस ( नल ) के दोनों पैर जूता पहने ऐसे लग रहे थे मानों दोनों वनों (कानन, जल ;) के पल्लवों और कमलों के साथ युद्ध ठानना चाहते हुए कवच बाप हुये हों। 123 / / टिप्पणी-राजा नल के जूते पहने पैर अपनी मृदु लाल छटा में वन के प्रवालों और जल के रक्त कमलों से बढ़-चढ़ कर थे। इस पर कवि ने कल्पना को है कि मानों वे उन दोनों से लड़ने हेतु कवच पहने हुए हों। युद्ध में बीर कवच पहन कर ही लड़ा करते हैं। जूते कवच बन गये / इस तरह यहाँ उत्प्रेक्षा है वन शब्द में श्लेष और कानव और जल का क्रमशः पल्लव तथा कमल से अन्वय होने से यथासंख्य अलंकार है / शब्दालकार वृत्त्यनुपास है // 123 / / विधाय मूर्ति कपटेन वामनी स्वयं बलिध्वंसिविडम्बिनीमयम् / उपेतपाश्र्वश्चरणेन मौनिना नृपः पतङ्ग समधत्त पाणिना // 124 // " अन्वयः-अयम् नृपः कपटेन वामनीम् बलि-ध्वंसि-विडम्बिनी मूर्तिम् विधाय मौनिना चरण; उपेतपाश्वः पाणिना पतङ्गम् स्वयम् ( एव ) समधत्त / टीका-अयम् एष नृपः राजा नलः कपटेन=छलेन वामनीम् =हस्वाम् बलिम् = एतत्संशक राक्षसराजम् ध्वंसयतौति बलिध्वंसी-( उपपद तत्पु० ) विष्णुः तम् विडम्बयति

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