Book Title: Naishadhiya Charitam 01
Author(s): Mohandev Pant
Publisher: Motilal Banarsidass

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Page 152
________________ प्रथमः सर्गः हिन्दी-स्थान-स्थान में रणाकरे योद्धा ( मौजूद); उनमें ( अपना ) यह मारने का शौक क्यों नहीं पूरा कर लेते ? तुझ राजे के इस कुत्सित शौर्य को धिक्कार है, जो (मुझ-जैसे ) दया-पात्र, दीन पनी पर (प्रदर्शित ) हो रहा है / / 13.2 / / टिप्पणी-पदे पदे में वीप्सालंकार, 'मटा' भया' में यमक 'कृपा' 'कृप' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / / 132 / / फलेन मूलेन च वारिभूरुहां मुनेरिवेत्थं मम यस्य वृत्तयः / स्वयाच तस्मिन्नपि दण्डायरिणा कथं न पत्या धरणी हणीयते // 133 // अन्वय.-(हे राजन् ) वारि-भू रूहाम् फडेन मूळेन च मुनेः इव यस्य मम इत्थम् वृत्तयः ( सन्ति ), तस्मिन् अपि दण्ड-धारिणा त्वया पस्या अब धरणी कथं न हृणीयते ? टीका-वारिबलं च भूः-पथिको चेति वारि-भुवी (इन्द्र ) तयोः रोहन्तीति तथोक्तानाम् (माह तत्पु० ) कमलानाम् वृक्षाणां च, अथ च पारि एव भूः= उत्पत्तिस्थानम् ( कर्मधा० ) तस्या रोहन्तीति तथोक्तानां कमलानाम् फलेन=पद्माक्षसंशकेन 'कमल डोडा' इति भाषायां प्रसिद्धन मूलेन कन्दादिना अथ च मृणालेन मुनेः = ऋषे इव यस्प.मम-हंसस्य इत्थम्-एवं प्रकारेण वृत्तयःजीवनसाधनानि आजीविका इत्यर्थः सन्तीति शेषः तस्मिन् -निरपराधे ऋषि-तुल्ये मयि हंसे अपि दण्ड धारयितुं शीलमस्येति तथोजेन ( उपपद तत्पु० ) दण्ड-कारिणा अदण्डय-दण्डकेनेति यावत् त्वया-पत्यामा सता अच धरणीपृथिवी कथं = कस्मात् न हणीयते - लज्जते ? त्वाम् अन्यायिनं पतिमवाप्य तत्पत्नीभूतया पृथिव्या अवश्यं लज्जितव्यम् , प्रिये अन्यायकारिणि सति स्त्रियों ज्जन्ते एवेति भावः // 113 / / ग्याकरण-हाम्/रुह+निवप् कर्तरि 50 व० / इस्थम् इदम् + थम् ( प्रकारे) / धारिणा V+पिन् ( ताच्छील्ये)] हीयते। हृषीङ् ( लज्जायाम् कण्ड्वादि ) यक् (सार्थे ) / हिन्दी-कमलों और वृक्षों के फल एवं कन्दमूल पर जीवन निर्वाह करने वाले मुनि की तरह जिस मुम हंस के कमलों के फल ( कसलडोडे ) और मूल ( मृणाल ) जीवन-साधन है, उस (निरपररापी) को भी दण्ड देने वाले तुझ पति से आज पृथिवी क्यों लज्जित नहीं हो रही है ? टिप्पणी-यहाँ हंस फल मूल पर जीवन-निर्वाह करने वाले ऋषि-मुनि से अपनी तुलना कर रहा है, इसलिए उपमा है जो 'वारिभूरुहाम् में श्लिष्ट है / 'वारि रुहाम् एवं भूरुहाम्' का मुनि के साथ और केवल 'वारिभूरुहाम्' का हंस के साथ क्रमशः अन्वय जुड़ने से यथासख्य भी है। 'न' 'हम' यमक धारिणा 'धरणी' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है / / 133 // इतीदृशस्तं विरचय्य वाङ्मयः सचित्रलक्ष्यकृपं नृपं खगः / दयासमुद्रे स तदाशयेऽतिथीचकार काल्पयरसापगा गिरः // 11 // अन्वयः-इति ईदृशैः वाङ्मयः तं नृपम् सचित्र-वैलक्ष्य-कृपम् विरचय्य स खगः दयासमुद्रे तदाशये कारुण्यरसारगाः निरः अतिबीचकार / 1. पृषीक्ते

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