Book Title: Naishadhiya Charitam 01
Author(s): Mohandev Pant
Publisher: Motilal Banarsidass

View full book text
Previous | Next

Page 153
________________ 112 नैषधीयचरिते टीका-इति एवं प्रकारेण ईदृशैः= एतादृशः वाडमयै वाग्विकारः= वचोभिरित्यर्थः तं नृपम् =राजान नलम् चित्रम् = आश्चर्य ( 'आलेख्याश्चर्ययोश्चित्रम्' इत्यमरः) च वैलच्यं = लज्जा च कृपा' = दया चेति० कृपाः (द्वन्दू ) तैः सह वर्तमानमिति सचित्र० (ब० वा०) विरचय = कृत्वा नले आश्चर्य लज्जा दयावोत्पाद्यत्यर्थः स खगः= पक्षी हंस इत्यर्थः दया= कारुण्यम् एव समुद्रः सागरः तस्मिन् ( कर्मधा० ) यस्य = नलस्य प्राशये = हृदये ( 10 तत्पु० ) 'प्रहमात्मा गुडाकेश सर्व भूताशये स्थितः' इति गोता) कारुण्यंकरुणभावरूपः रसः= काव्यरसेषु अन्यतमः करुणरस इति यावत् (कर्मधा०) तस्त्र प्रापगाः नदीः (10 तत्पु० ) गिरः वाचः अतिथीचकार = प्रवेशयामासेत्यर्थः, यथा नद्यः समुद्रं प्रविशन्ति, तथैव हंसस्य करुषा-पूर्णवाचः नलहृदये प्राविशन् , हसः स्वकरुपवचनानि नलम् अश्रावयदिति मावः // 134 // म्याकरण-ईरशैः अयम् इव दृश्यते इति इदम् +/दृश् +कञ् तृ० ब० / वाङ्मयः वाचा विकारैः ( 'एकाचो नित्यं भयटमिच्छन्ति' ) इति वाच्+मयट ( विकारे ) तृ० ब० / वैलच्यम् विलशस्य माव इति विलक्ष +ष्यञ् ( आत्मनश्वरिते सम्यग् शातेऽन्यैर्यस्य जायते / अग्नपाऽतिमहतो स विलक्ष इति स्मृतः) अपनी पोल खुल जाने से होने वालो लज्जा को वैलक्ष्य' कहते हैं / विरचरय वि+ रच+ल्यप् हस्त्र पूर्व में होने से पि को अयादेश / खगः खे = आकाशे गच्छतीति ख+/ गम् +3 / भापगा अपां = जलानाम् समूहः आपम् तेन गच्छतीति आप+ गम् +ड+टा। अतिथीचकार अनतिथिम् अतिथिं चकारेति अतिथि+चि/+लिट् / हिन्दी-इस तरह ऐसे-ऐसे वचनों से उस राजा ( नल ) को आश्चर्य, लज्जा और दयायुक्त करके उस पक्षी (हस ) ने उन ( राजा ) के दया के समुद्र-रूपो हृदय में वायोरूप करुणरस को नदियों को प्रवेशार्थ प्रेरित किया ( अर्थात् वह करुणा-भरे शब्दों में बोला ) // 134 // टिप्पणी-सचित्र वैलचय-पम्-हंस ने नल को आश्रर्य में इसलिए डाला, क्योंकि एक तो यह कि वह सोने का था, दूसरे, वह मनुष्यों की वाणी बोल रहा था; लज्जित इसलिए कर डाला कि वह राजा के चरित्र की बड़ी बुरो आलोचना कर रहा था; दया राजा के हृदय में उसने इसलिए उत्पन्न कर दी कि वह दोनता-भरी वाणी बोल रहा था। यहाँ हृदय पर दया-समुद्रत्व का और गिराओं में करुण रस की नदीत्व का आरोप होने से रूपक है। यदि 'रस' शब्द को श्लिष्ट माना माय, तो काव्य के रस-विशेष पर रसत्व ( जलस्व ) का आरोप मी रूपक बन जायेगा, क्योंकि नदियों जल की ही हुआ करती हैं / इस प्रकार यह सांग रूपक है। 'कार' 'क'रु' में छेक, 'कृपम्' 'नृगम्' पदान्तगत अन्त्यानुप्रास और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / / 134 // मदेकपुत्रा जननी जरातुरा नवप्रसूतिवरटा तपस्विनी। गतिस्तयोरेष जनस्तमर्दयमहो विधे त्वां करुणा रुणद्धि न // 135 // अन्वयः-जननी जरातुरा मदेकपुत्रा ( चास्ति ) तपस्विनी वरटा नव-प्रमूतिः ( अस्ति ) / तयोः एव जनः गतिः ( अस्ति ) / तम् अर्दयन् (हे ) विधे, करुया त्वाम् न रुयद्धि ? टीका-जननीमम माता जरया - वृद्धावस्थया आतुरा=पीडिता ( तृ० तत्पु० ) अहम् एव

Loading...

Page Navigation
1 ... 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164