________________ प्रथमः सर्गः 111 को लिखने की शक्ति उसे चिन्तामणि मन्त्र के जप और ध्यान से प्राप्त हुई है। वह चिन्तामणि मन्त्र क्या है-इसके सम्बन्ध में कवि यहाँ कुछ न बताकर सर्ग 14 के श्लोक calct में बता गया है। यहाँ प्रसंग-वश उन श्लोकों को उधृत करना मनुचित नहीं होगा। पहले में मन्त्र और दूसरे में उसका फल है। वे ये हैं अवामावामाधैं सकलमुमयाकार घटनाद् द्विधाभूतं रूपं भगवदमिधेयं भवति यत् / तदन्तमन्त्रं मे स्मर हरमयं सेन्दुममतं निराकाथं शश्वज्जप नरपते. सिध्यतु स ते // क्योंकि मन्त्र गुह्य गोप्य हुआ करते हैं, इसलिए कविने गहन-गूद माष में उसे यहाँ छिपा रखा है। टीकाकार 'यदा' 'यदा' करके कठिनता से उसे ढूँढ पा रहे हैं। हम यहाँ चाण्डूपण्डित की व्याख्या उदधृत करते हैं, जिसे हम ठीक समझते हैं 'बामे अर्धे = वामपक्षाधे प्रथमम् अवा = ॐकारेण मथा कामकारेण ॐकारेणेत्यर्थः यत् रूपं द्विधादिप्रकारं भूतं सत् = द्वितीयेन ॐकारेण दक्षिणाधेऽपि भूतम् - प्राप्तम् भगवदभिधेयं भवति ब्रह्मवाचकम् / किंभूतम् -उसयाकारस्य = ॐकारद्वयस्य घटनात्मे लनात् सकलम् / तदन्तः तयोः ॐकारयोरन्तः- मध्ये हरमयम् =ईश्वरमयम् मन्त्रं मम स्मर / अथ च हकारो रेफकारो मकार ईकारश्च / चतुष्टयेऽपि अकार उच्चारणार्थः। ईकारस्य पुरत: अकारस्य सुखाच्चारणार्थ य आदेश हीकारः। उमयपक्षे ॐकारेण संपुटित इत्यर्थः / सेन्दुम् =अर्घमात्रायुक्तम् / ' ____ मावार्थ यह निकला कि वायीं ओर और दायीं ओर ब्रह्मा चक मोम्' रखो जिसे संपुट कहते उन दोनों प्रोकारों के बीच में सेन्दु = अर्धचन्द्र के साथ हर म-य' रखो। मुखोच्चारण हेतु यहाँ ईकार के स्थान में यकार कर रखा है। इन सभी में अकार केवल उच्चारणार्थ है। सबको जोडकर अर्थात् ह+र+म् +ई+अर्धचन्द्र मिलकर='ही रूप 'ॐ ह्रीं ॐ निकलता है। यही चिन्तामणि मन्त्र है। तान्त्रिक माषा में नारायण ने इसमें प्रमाण दिया है-'शिवान्त्यो वहिसंयुक्तो ब्रह्मद्वितयमन्तरा / तुरीयस्वरशीतांशुरेखातारासमन्वितः // एष चिन्तामपि म मन्त्रः सर्वार्थसाधकः जगन्मातुः सरस्वत्या रहस्यं परमं मतम् // [शिव-ह, वहिः- रेफ, ब्रह्मान् = प्रणव, तुरीयस्वरः= 'शीतांशु रेखा चन्द्रकला अर्धचन्द्र तारा-विन्दुः%ॐ ह्रीं ॐ / इस सारस्वत चिन्तामणि मन्त्र की फलश्रुति कवि ने दूसरे श्लोक में इस प्रकार बताई है : सर्वाङ्गीय-रसामृत-स्तिमितया वाचा स वाचस्पतिः, स स्वगाय-मृगोदशामपि वशीक राय मारायते। यस्मैयः स्पृहयत्यनेन स तदेवाप्नोति किं भूयसा,येनायं हृदये स्थितः मतिना मन्मन्त्र-चिन्तामणिः। बह चिन्तामणि मन्त्र प्रकट होकर स्वयं भगवती सरस्वती ने राजा नल को जपने को कहा था। आगे इसका विधान मी बता रखा है। कवि के व्यक्तिगत परिचय वाले श्लोक में श्रीहोर पर हीरत्वारोप होने से रूपक है। 'होरः' 'हीर' में यमक 'चिन्ताः 'चिन्त' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 145 / / / नैषधीय-चरित काव्य का प्रथम सर्ग समाप्त / /