Book Title: Naishadhiya Charitam 01
Author(s): Mohandev Pant
Publisher: Motilal Banarsidass

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Page 150
________________ प्रथमः सर्गः ब्राह्मण और 'नातरूपच्छद' का सुवर्ण जैसी (पीली ) चादर है। पीत वर्ण हमारे यहाँ बड़ा पवित्र माना गया है, इसी कारण मांगलिक कार्यों में पीले वस्त्र पहनने का विधान है। भगवान कृष्य स्वयं पीताम्बर है / इस श्लेष से कवि को यहाँ यह उपमा ध्वनि विवक्षित है कि जिस तरह सोने को-सी पालो चादर बोढ़े ब्राह्मय का सौन्दर्य बढ़ जाता है, वैसे ही सोने के पंखों ने हंस की सुन्दरता पर चार चाँद लगा दिए थे। 129 // धिगस्तु तृष्णातरलं भवन्मनः समीक्ष्य पक्षान्मम हेमजम्मनः / तवार्णवस्येव तुषारसीकरैमवेदमीभिः कमलोदयः कियान् // 14 // अन्वयः-(हे राजन् ! ) हेम-जन्मनः मम पक्षान् समीक्ष्य तृष्णा-तरलम् मवन्मनः धिक् अस्तु / तुषार-शीकरैः अर्षयस्य कमलोदयः इव तव अभीमिः कियान् कमलोदयः भवेत् / टीका-(हे राजन् !) हेम्नः- सुवर्षात् जन्म ( पं० तत्पु० ) येषां तथाभूतान् (10 बी० ) मम पक्षान् =गरुतः समीच्य-ष्ट्वा तृष्णया-लोमेन तरतम् = चञ्चलम् ( तु. तत्पु० ) भवतः मनः= अन्तःकरणम् (10 तत्पु०) विक प्रस्तुनिन्दितमस्तु (घि निर्भर्त्सन-निन्दयोः इत्यमरः) तुषारस्य-हिमस्य शीकरैः कणिकाभिः (10 तत्पु०) अर्णवस्य समुद्रस्य कमस्य-जलस्यउदयः-वृद्धिः (10 तत्पु०) 'सलिलं कमलं जलम्' इत्यमरः) इव तबमवतः प्रमोमिः एत: सुवर्षपः कियान् = कियत्परिमाप: कमलायाः= लक्ष्म्याः उदयः वृद्धिः भवेत् - स्यात् न कोऽपीति काकुः, अर्थात् यषा तुषार-कणेः समुद्र-जलस्य न कापि वृद्धिः जायते, तथैव मत्पक्षगत-सुवर्णेन तव धनस्यापि न कापि वृद्धिः भविष्यति // 130 // व्याकरण-धिक् मनः धिक् के योग में मनस्शब्द को द्वितीया / तृष्णा- तृष् +न+टाप् किवं च / अर्णवः प्रति जठानि अस्मिन् सन्तोति अप्पस्+व स का लोप / हिन्दी-हे राजन् 1) सोने के पखों को देखकर लोम से चनउ बने आपके मन को धिक्कार हो। मोस के कषों से समुद्र के कमल ( जल ) को वृद्धि की तरह ( मेरे ) इन ( सोने के पंखों) से तुम्हारी कमला ( लक्ष्मी धन ) की कितनी वृद्धि हो सकती है ? // 130 / / टिप्पणी-यहाँ जिस तरह बोस की बूंदों से समुद्र के जल की कुछ भी वृद्धि नहीं हो सकती, जैसे ही मेरे सोने के पखों से तुम्हारे कोश की मी वृद्धि क्या होगी -इस तरह सा-दृश्य बताने से उपमा है, जो कमलोदय में श्लिष्ट है। शब्दालंकार काकु वक्रोक्ति एवं वृत्त्यनुपास है / / 130 / / न केवलं प्राणिवधो वधो मम स्वदीक्षणाद्विश्वसितान्तरात्मनः। विगर्हितं धर्मधनर्निवहणं विशिष्य विश्वासजुषां द्विषामपि // 131 // अन्वयः-(हे राजन् ! ) स्वदोक्षपात् विश्वतितान्तरात्मनः मम वधः केवलम् प्रापि-वधः न, विश्वासजुषाम् द्विषाम् अपि निवह पम् धर्म-धनः विशिष्य विगहितम् ( मस्त ) / टीका-(हे राजन् ! ) तव ईक्षणम् =दर्शनम् (प० तत्पु० ) तस्मात् विश्वसितः = विश्वासं प्राप्तः अन्तरात्मा=मनः (कर्मधा० ) यस्य तथाभूतस्य (ब० वी०) मममे वधःहिंसा केवलम् प्राणिनः=जोवस्य वधः (10 तत्पु० न ) अपितु विश्वास-घातोऽपि वर्तते इत्यर्थः,

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