Book Title: Naishadhiya Charitam 01
Author(s): Mohandev Pant
Publisher: Motilal Banarsidass

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Page 141
________________ नैषधीयचरिते टोका -स नैषधः = निषधाधिपतिर्नलः तत्र-तस्मिन् पयोधिः =समुद्रः तस्य लचमी:-शोभा (10 तत्पु०) तां मुष्णाति = अपहरतीति तथोक्ते ( उपपद तत्पु०) समुद्र-सदृशे इत्यर्थःकेलयेक्रीडार्थ पल्वलम् = सरः (च० तत्पु० ) तस्मिन् रिरंसु० =रन्तुमिच्छन्तीति रिरंसपश्च - ताः इंस्यः = हंसपल्यः ( कर्मधा० ) रमणेच्छावत्यो हंस्य इति यावत् तासां कलः=अव्यक्तमधुरः (घ. तरपु०) नादः शब्दः (कर्मधा० ) तस्मिन् सादरम् = आदरसहितम् उत्सुकमित्यर्थः ( स० तत्पु० ) अन्तिके-हंसीनां समीपे विचरन्तम् = विचरणं कुर्वन्तम् बालासु किशोरीषु = आसन्नयौवनास्वित्यर्थः रतिः= संभोगः तस्मिन् क्षमासु = समर्थासु च प्रियासु = प्रणयिनीषु विषये सम्बोः त्रोटयोः ( 'चन्नुस्रोटिरुमे स्त्रियाम्' इत्यमरः) चरणयोः पादयोः द्वयम् - युगलम् (10 तत्पु० ) तस्य (प. तत्पु०) मिषेख = कैवेन द्विपत्रितम् = पत्रव्ययुक्तं पल्लवितम् = सजात पल्लव च स्मरेण कामेन अर्जितम् = उत्पादितमित्यर्थः ( तृ० तत्पु० ) राग:- अनुराग एक महीमहः = वृक्षः ( कर्मधा० ) तस्य अकुरम् = प्ररोहम् विभ्रतम् = धारयन्तम् , बालासु हंसीषु द्विषत्रितम् रागाङ्करम् स्वल्यानुरागमित्यर्थः युवतिषु च हंसीषु पल्लविताङ्करम् भूयांसमनुरागमित्यर्थ इति क्रमशोऽन्वयः, चित्र = अद् सुतम् हिरण प्रयम् = सुवर्णमयम् हंसम् प्रबोधि - अशासीत् वानित्यर्थः // 117-118 // व्याकरण-नैषधः इस शब्द के सम्बन्ध में पोछ 36 वा श्लोक देखिए / मुषि/मुष् + विप् कर्तरि स० / रिरंसुः रन्तुमिच्छुः इति / म् + सन् + उ / रतिः (म् +क्तिन् मावे / द्विपत्रि. तम् दे पत्रे सजातेऽस्येति द्विपत्र+इतच् / पल्लवितम् पल्लवानि सजातान्यस्येति पल्लव+इतन् / विनतम् भृम्+शत, नुम् का अभाव द्वि० / हिरण्मयम् हिरण्यम् एवेति हिरण्य+मयट (स्वाथें ) 'दाण्डि हिरण्मयानि' (पा० 6 / 4 / 174 ) से निपातित / प्रबोधि/बुध् +चिण लुङ (कर्तरि ) / .. हिन्दी- वह निषधाधिपति नल समुद्र की शोभा चुराने वाले उस क्रीड़ा-सरोवर पर रमण को इच्छा रखने वाली हंसिनियों के मधुर शब्द की ओर आदर-भाव रखे, समीप में ही विचरण करते हुए, किशोरियों और संभोगसमर्थ प्रियतमाओं के पति चोंच और दो चरणों के बहाने दो पत्ते तथा (बहुत ) पत्ते वाले, काम द्वारा लगाये अनुराग-रूपी वृक्ष का अंकुर धारण करते हुए एक विचित्र सोने के हंस को देख बैठी // 117-118 // टिपपणी-जहाँ एक हो वाक्य एक श्लोक में समाप्त न होकर दो में चला जाता है, उसे युमक कहते हैं / ये दो श्लोक भी युग्मक हैं, इसलिए एक ही साथ दोनों की व्याख्या करना हमने उचित समझा है जबकि अन्य टीकाकार पृथक् 2 व्याख्या कर रहे हैं। हंस को चोंच और दोनों पैर राग वाले ( लाल ) थे। इस पर कवि कामवृक्ष के अकुर को कल्पना कर रहा है। चों व ओर पैरों का राग ( लाली) तया हृदय का राग ( अनुराग ) दोनों अभिन्न होकर एक बन गये हैं / अन्य वृक्षों की तरह काम-वृक्ष पर मो अंकुर फूट कर पहले दो पत्ते निकले जो हंस के चञ्च पुट रूप में थे / ये दो पत्तोंवाला अनुराग बालाओं-आसन्न-यौवनाओं के प्रति था, जो अभो रति-क्षम नहीं होने पाई थीं, लेकिन दो चरणों के रूप में अनुराग पल्लवित हो उठा था जो रति-क्षम पूर्ण-यौवन-प्राप्त. रमणियों के लिए था। इस तरह सबसे पहले यहाँ कवि दो विभिन्न रागों के अभेदाध्यवसाय. द्वारा

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