________________ प्रथमः सर्गः हिन्दी--जिस (तड़ाग ) को नल ने सफेद और नीले रंग के बड़े मारी कमल-समूह के बहाने पानी के भीतर छिपे चन्द्रमा और कालकूट-विष की कान्ति को छोड़ता हुआ जैसा समझा // 113 // टिप्पणी-चन्द्र के श्वेत और कालकूट के काला होने के कारण यहाँ छल शब्द से श्वेत और नील कमलों का प्रतिषेध करके उनमें विधुत्व और कालकूटस्व की स्थापना करने से अपहृति 'मेने' शब्द से अभिहित उत्प्रेक्षा तथा 'गौर' और 'मेचक' का 'विधु' और 'कालकूट' से क्रमशः अन्वय में यथासंख्य का संकर है / 'नल' 'निलो' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / / 113 // चलीकृता यत्र तरङ्गारिङ्गणरबालशवाललतापरम्पराः / ध्रुबं दघुर्वाडवहव्यवाडवस्थितिप्ररोहत्तमभूमधूमताम् // 114 // अन्वयः-यत्र तरङ्ग-रिङ्गप्पैः चलीकृताः अबाल-शैवाल-लता-परम्परा: वाडव'धूमताम् दधुः (इति ) ध्रुवम् / टोका-यत्रतडागे तरङ्गाखाम् = वीचीनाम् रिङ्गणैः कम्पनैः स्खलनैरित्यर्थःचलीकृताःचाश्चल्यम् प्रापिता: न बालाः लध्व्यः इति अबालाः =(मञ् तत्पु० ) महत्य इत्यर्थः याःशैवाल. लताः = जलनीलो-बल्लयः ( कर्मधा० ) शैवालाना लता इति (10 तत्पु० ) तासां परमराः= पंक्तयः समूहा इति यावत् (प० तत्पु०) वाडव०-वाडवश्चासौ-हव्यवाट् = वाडवाग्निः अवस्थितिः = समुद्र-जळाभ्यन्तरे अवस्थानम् (10 तत्पु० ) तेन प्ररोहत्तम अतिशयेन प्ररोहन् प्रादुर्भवन्नित्यर्थः ( तृ० तत्पु० ) भूमा-बाहुल्यम् / कर्मधा० ) यस्य तथाभूतः (20 बी० ) धूमः( कर्मधा० ) तस्य मावः तत्ता ताम् दधुः=धारयामासुः ध्रुवमित्युत्प्रेशायाम् , समुद्रे हि वाढवाग्निस्तिष्ठति, सोऽत्रापि तिष्ठति यस्य धूम-समूहस्तरङ्ग वलितशैवाललता-समूह-रूपेणावलोक्यते इति मावः / / 114 // व्याकरण -रिङ्गणम्/रिज+ल्युट् भावे / हव्यवाट् हव्यं वहतीति हव्य = वह +विः 'वहश्च' (पा० 3 / 2 / 64 ), किन्तु यह वैदिक प्रयोग है। लोक में इसके पर्याय हव्यवाहन का प्रयोग होता है। पता नहीं क्यों कवि ने यहाँ वैदेक शब्द का प्रयोग किया है / प्ररोहत्तम प्र+ V +शतप्ररोहन् अतिशयेन प्ररोहन्निति प्ररोहत् तमप् / दधु /धा+लिट / हिन्दी-जिस ( तडाग ) में तरंगों के चलते रहने से हिल रही सिवार की बड़ी-बड़ी लताओं की पंक्तियाँ मानो ( जल के नीचे छिपी ) वाडवाग्नि के रहने के कारण अत्यधिक मात्रा में उठ रहे धुएँ का रूप रख रही हों // 114 // टिप्पणी-समुद्र में वाडवाग्नि रहा करती है। उसे वाडवाग्नि इसलिए कहते हैं कि उसका मुंह वड़वा (घोड़ी) का-सा रहता है / प्रलयकाल में सारा समुद्र सुखाकर वह संसार को मस्म कर देती है / तडाग में हरी-काली सिवार को लताय तरंगों से टकराकर जल के भीतर लहरा रही थी। उनपर कवि वाडवाग्नि के लहराते हुए धुएँ की कल्पना कर बैठा इसलिए यहाँ उत्प्रेक्षा है, जिसका वाचक शब्द ध्रुवम् है। 'बवयोरमेदः' नियम के अनुसार 'बाल' 'वाल' तथा 'बाडव' 'वाडव' में यमक, रङ्ग' 'रिङ्ग' में छेक, और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है। 'हव्यवाट्' में अपयुक्तत्व दोष है / / 114 //