________________ नैषधीयचरिते बने = कानने पिकात्=कोकिलात् भृङ्गानाम् भ्रमराणाम् हुकृतः, - हुंकार-ध्वनिभिः वियोगिनश्च वियोगिन्यश्चेति वियोगिनः ( एकशेष द्वन्द्वः) तेषां दशाम-दुःखमरितावस्थाम् शृण्वति आकर्षयति सति अनास्थयान आस्था रुचिः इच्छतियावत् तया ( नञ् तत् प० ) औदासीन्येन विरक्त्येत्यर्थः सूनानि पुष्पाणि पद्मानीत्यर्थः एव कराः=हस्ताः ( कर्मधा० ) तान् प्रसारयतीति तथोक्ताम् ( उपपद तत्पु० ) स्थलस्य पदमिनी= कमलिनी ( 10 तत्पु० ) ताम् कमलं जलजं स्थलजमपि च मवति / अत्र स्थलन-पद्मिनी प्रतिपादिता, ददर्श दृष्टवान् , अत्र वियोगिनां करुणदशायाः वक्ता पिकः भ्रमर-झकारधनि-रूपेण हुँकारं ददानः श्रोता वनान्तः, पाश्व स्थिता स्थलपद्मिनी च कष्टां दशां श्रोतुमनिच्छया कर रूपेण पद्मानि प्रसार्य अग्रे कथनात् पिकं वारयति, नलश्च तत्सर्व पश्यतीति सरलार्थः // 88 / / ___ व्याकरण-हुकृतः 'हुम्' इति शब्दानुकृतिः तस्याः करणम् इति हुम् +/+क्त भावे / उदश्चत् उत् + /अञ्च् + शतृ / प्रास्था आ+ ग्था+अङ् मावे श्रद्धेत्यर्थः / दूनः +क्त,'त' को 'न। हिन्दी-(काम-) संतप्त नल विकसित हो रहे करुण के वृक्षों के रूप में करुणा भरे वन के पिक ( के मुँह ) से भ्रमरों की ध्वनि के रूप में हुंकारी भरकर वियोगी और वियोगिनियों की दशा सुनते रहने पर अनिच्छा से पुष्प-रूप कर पसारे स्थल-कमलिनी को देख बेठा // 88 // टिप्पणी-कानन में कोयले कूक रही हैं, भौरे हुंकार रहे हैं; करुण वृक्ष के फूल विकसित हो रहे हैं भोर कमल खिल रहे हैं। ये सारे प्रकृति-तत्त्व विरहियों को बुरी तरह सालते है / कवि ने यहाँ इन सभी का हिन्दो के छायावाद की तरह चेतनीकरण कर रखा है। कोयल कूकने के रूप में वन को विरही-जनों की व्यथा-पूर्ण दशा सुना रही है। वन भी सुनते समय द्रवित हुआ भ्रमरों के हुंकार के रूप में 'हाँ हूँ' कर रहा है। पास में खड़ी पद्मिनी भी विरहियों को जब बुरी हालत सुनती है तो द्रवित हो उठती है और आगे न सुनने की इच्छा से कर के रूप में प्रसून फैला कर कोयल को रोक देती है कि 'बस करो बहिन ! मैं आगे नहीं सुन सकती।' इस तरह यहाँ प्रस्तुत जड़ प्रकृतितत्वों पर अपरतुत चेतन स्त्री पुरुषों का व्यवहार-समारोप होने से समासोक्ति है, 'सूनानि एव करा' में रूपक है और 'कर फैलाकर रोक-जैसे रही है' में उत्प्रेक्षा है। उत्प्रेक्षा गम्य है, वाच्य नहीं। 'करुणे' मैं 'करुण वृक्ष' और 'करुणा' अर्थों का श्हेष है। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है / चाण्डू पंडित ने जम्बोर को करुण वृक्ष कहा है // 88 // रसालसाल: समदृश्यतामुना स्फुरद्विरेफारवरोषहुकृतिः / समीरलौलमुकुलविंयोगिने जनाय दित्समिव तर्जनाभियम् // 89 // अन्वयः-प्रमुना स्फुरद् कृतिः, रसाठ-सालः समीर-लोलेः मुकुलैः वियोगिने जनाय तर्जनाभयम् दित्सन् इव समदृश्यत / टीका-अमुना नरेन स्फुरद०-स्फुरन्तः =भ्रमन्त: ये द्विरेफाः = भ्रमराः (कर्मधा० ) तेषाम् पारवः = झक्कार-ध्वनिः (10 तत्प० ) एव रोषहुकृतिः ( कर्मधा० ) रोषस्य = क्रोधस्य