________________ 77 प्रथमः सर्गः हुरुकृतिः 'हुँइति शब्दः (10 तत्पु 0 ) यस्य तथाभूतः ( ब० वी०) रसालस्य आम्रस्य सानः वृक्षः ( 'अनोकहः कुटः शालः ( सालः ) पलाशी द्रु द्रुमागमाः' इत्यमरः ) समोरेण -पवनेन बोलेः चन्चलः मुकुलैः=कुङ्मले (10 तत्प० / वियोगिने = वियोगी च वियोगिनी च तस्मै (एकशेषद्वन्द्वः) जनाय = लोकाय तजनाया:=भत्सनाया: भयम् =मोतिम् दिसन् =दातुमिच्छन् इव समदृश्यत = दृष्टिपथमानोतः वियोगिषु क्रुद्ध आम्रवृक्षः भ्रमरध्वनि-रूपेण हुंकुर्बन, वायुवेपित-कुङ्मल-रूपाङ्गुल्या विभीषयतीवेतिभावः / / 86 / / - व्याकरण-रसाल साल:-रसाल शब्द से यहाँ आम्र वृक्ष न लेकर आम्र फल लेना चाहिये क्योंकि वृक्ष के लिये साल 'शब्द' पृथक दे ही रखा है। रसाल पाम्रवृक्ष को भी कहते हैं, ऐसी स्थिति में वृक्ष शब्द की पुनरुक्ति हो जाती है, इसलिये सामान्य वृक्ष वाचक साल का विशेष वृक्ष. बाचक रसाल के साथ 'सामान्य विशेषयोरमेदान्वयः' इस नियम से 'आम्रवृक्षाभिन्नवृक्ष' अर्थ कर केना चाहिये / हुङ कृति 'हुम्'/+त्तिन् भावे। तजना तर्ज + युच् +टाप् / भोः /भी+ त्रिप भावे / दित्सन्/दा+सन् +शतृ / समदृश्यत सम् +/दृश् +लङ् कर्मवाच्य। / हिन्दी-उस ( नल ) ने मंडराते हुये भ्रमरों की ध्वनि के रूप में क्रोध-भरा हुँकार छोड़ते हुये ( तथा ) हवा से हिल रहे मुकुलों ( के रूप में अंगुलियों ) से वियोगी-जनों को तर्जना का भय देते जैसे आम के वृक्ष को देखा / / 86 / / टिप्पणी-यहाँ भ्रमर-झंकार पर रोष हुँकृतित्व के आरोप से रूपक है, किन्तु साथ हो कवि को मुकुलों पर अंगुलित्वारोप भी कर देना चाहिये था, जिसे विवक्षित होने पर भी वह कर न सका इसलिये रूपक का समस्त-वस्तु-विषयक रूप न वनकर एक-देश विवौ रूप ही रह गया है। मुकुल रूपी अंगुलियों से मानों तर्जना देना चाह रहा है-इस कल्पना में उत्प्रेक्षा है। रसा' 'रसा' में यमक और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है / / 89 / / दिने दिने स्वं तनुरेधि रेऽधिकं पुनः पुनर्मूर्छ च तापमृच्छ च / इतीव पान्थान्शपतः पिकान् द्विजान सखेदमैक्षिष्ट स लोहितेक्षणान् // 90 // अन्वय-रे ( पान्थ ) त्वम् दिने दिने अधिकं तनुः एधि, पुनः पुनश्च मूर्छ, तापं च ऋच्छ' इति पान्यान् शपतः इव लोहितेक्षणान् पिकान् दिजान् स. सखेदन ऐक्षिष्ट / / टीका-रे अरे इत्यनादर-पूर्वक सम्बोधने अव्ययम् , दिने दिने प्रतिदिनम् अधिकं यथा . स्वातथा तनुः = कृशः एधि मव, पुन-पुनश्च बारं वारं च मच्छ = मूर्छा प्राप्नुहि, तापम:ज्वरमित्यर्थः च ऋच्छ प्राप्नुहि' इति=एवम् इव पान्थान् = पथिकान् विरहिण इत्यर्थः शपतः - शापविषयीकुर्वतः पान्थेभ्यः शापं ददत इति यावत् लोहिते रक्तवणे ईवणे= नयने / कर्मधा० ) येषां तान् (ब० वी० ) पिकान् = कोकिल्लान द्विजान् = पक्षिणः अय च ब्राह्मणान् सः नल: सखेदम् खेदेन सहितं यया स्यात्तथा ऐक्षिष्ट = दृष्टवान् / / 90 / / .: व्याकरण-दिने-दिने वीप्सा में द्वित्व / एधि/अप्स+लोट् मध्य० एक० / अछ/ऋ को छ आदेश करके या सीधे ऋच्छ धातु का लोट मध्य० एक० बना हुआ है। पान्थः नित्यं