Book Title: Naishadhiya Charitam 01
Author(s): Mohandev Pant
Publisher: Motilal Banarsidass

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Page 132
________________ प्रथमः सर्गः 91 . तथाभूनः (ब० वी० ) वनस्य काननस्य अनिल:= वायुः (10 तत्पु०) अमुम्न लम् असेवत सेवितवान् / अत्र उक्तैः त्रिभिः विशेषणः बायोः मन्दत्वम् सुगन्धित्वम् शीतलत्वं च द्योत्यते / अन्योऽपि सेव्यः पोठमर्दादिपरिचारकैः सेव्यते / व्याकरण--लास्यम्/लस् + ण्यत् / पश्यतोहरः हरतीति हर:/ह+अच् कर्तरि पश्यतः लोकस्य हरः,, यहाँ षष्ठी चानादरे' ( पा० 2 / 338) में षष्ठी और उसका "वादिक, पश्यद्भयो युक्ति-दंडहरेषु' इस वातिंक से लोप-निषेध होकर अलुक समाप्त है। जो लोगों के देखते-देखते वस्तु उड़ा लेता है, उसे 'पश्यतोहर' कहते हैं, देखिये हलायुध-'पश्यतो यो हरत्यर्थ स चौरः पश्यतोइरः' / प्रणीत प्र+/नी+क्त कर्मपि। हिन्दी-लता-रूपी नायिकाओं का नृत्य-कला का गुरु, वृझों के सौरभ-समूह का डाकू ( और ) मकरन्द-रूपी सुगन्धित जल में सविलास स्नान किये हुए वन-पवन उस ( नल ) की सेवा कर रहा था // 106 // टिप्पणी-वन में मन्द-सुगन्ध-शीतल पवन बह रहा था। उस पर कवि सेवकत्व का अरोप कर रहा है। साथ ही लतारूपी नारियों का गुरुत्व और फूलों के चोत्व का आरोप भी उस पर किया गया है / इसलिए यह रूपक है / लता पर नारीत्व और पवन पर गुरुत्व के आरोपों का परस्पर कार्यकारणभाव होने से परम्परित रूपक है, किन्तु पश्यतोहरत्वारोप में निरंग रूपक है। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है / / 106 / / अथ स्वमादाय मयेन मन्थनाच्चिरत्नरत्नाधिकमुच्चितं चिरात् / निलीय तस्मिन्निवसन्नपांनिधिर्वने तडागो ददृशेऽवनीभुजा / / 107 / / अन्वयः-अथ अवनी भुजा तडागः मन्थनात् भयेन चिरात् उच्चितम् चिरत्न-रत्नाधिकम् स्वम् आदाय तस्मिन् वने निलीय निवसन् अनि धिः ददृशे। टोका-अथ = अनन्तरम् अवनीभुजा-राज्ञा नलेनेत्यर्थः तडागःकासारः मन्थनात् = मथनात् भयेन = भीत्या चिरात् = सुद धकालात् उच्चितम् = सञ्चितम् चिरत्नानि = चिरन्तनानि यानि रत्नानि-ऐरावतोच्चैःश्रव प्रादीनि चतुर्दश ( कर्मधा० ) तैः अधिकम् = अधिकतर मित्यर्थः ( तृ० तत्पु० ) पूर्व तु एकैकान्येत्र ऐरावतादिरत्नानि आसन् , सम्प्रति तु चिराद् दृद्धि गतानि अधिकतराणि तानि जातानीति भावः, स्वम् = धनम् भादायगृहीत्वा तस्मिन् वने = कानने निलीय= अन्तर्धाय तिरोभूनीभूगेति यावत् निवसन् = वासं कुर्वन् अपानिधिः समुद्र इव = ददशे = दृष्टः / एतेन तडागस्य जल-बाहुल्यं सूच्यते // 107 // व्याकरण-अवनीभुजा अवनीम् ( पृथ्वीम् ) भुनक्ति इति/गुज +क्विप कर्तरि तृ० / चिरत्न चिरंभवतीति चिर+त्नः ('चिर-परुत्-परादिभ्यस्त्नो वक्तव्यः', वातिक ) / ददृशे दृश्+ लिट कर्मवाच्य / हिन्दी-इसके बाद राजा ( नल ) ने तालाब देखा, जो ऐसा लग रहा था मानो मन्थन के डर के मारे चिरकाल से सञ्चित ( और ) पहले के रत्नों से ( भी कहीं ) अधिक धन लेकर उस वन में छिप कर रह रहा समुद्र हो // 107 //

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