Book Title: Naishadhiya Charitam 01
Author(s): Mohandev Pant
Publisher: Motilal Banarsidass

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Page 124
________________ प्रथमः सर्गः स्येति तत्सम्बन्धिनमित्यर्थः कलानान् = चन्द्रमण्डलस्य षोडश-मागानाम् ('कला तु षोडशो मागः' इत्यमरः) कलापम् = समूहम् (10 तत्पु० ) वमन् = उगिरद् सिंहिका= एतत्संशका राक्षसी तस्याः सुतः पुत्रः राहुरित्यर्थः (प० तत्पु० )भमन्यत-अतर्कयत् किलेति निश्चये / अगस्यवृक्षो कृष्यो भवति, तस्य कुड्मलानि च श्वेतानि भवन्ति, अतएव वृक्षस्य राहुणा तत्कोरकाप्पाञ्च चन्द्रकलाभिः सादृश्यम् // 66 / / ___ व्याकरण-कोरकितः कोरकाः सम्जाता अस्येति कोरक+इतच ('तदस्य सजातम्' इस अर्थ में 'तारकादिभ्य इतच्' ) / त्रुटि /त्रुट +इन् कित्वम् / वैधवम् वि|ः इदम् इति विधु+यण। हिन्दी-उस / गल ) ने वन में ( श्वेत ) कलियाँ निकाल रहा, काले रंग की कान्ति वाला अगस्त्य-वृक्ष 'सचमुच ऐसा समझा कि मानों राहु हो जो कृष्णपक्ष में ( चन्द्रमा की कलाओं के हास के बहाने ) खाए हुये चन्द्रमा के कला-समूह को उगल रहा है / / 66 // टिप्पणी-अगस्त्य वृक्ष के पत्ते गहरे हरे रंग के होने के कारण वह काला दिखाई देता है लेकिन उससे निकलने वाली कलियों श्वेत होती हैं। इसी तरह राहु भी काला होता है और चन्द्रमा की कलायें श्वेत होती हैं। कृष्णपक्ष में चन्द्रमा की एक-एक कला का क्षय होता रहता है / इस तथ्य को छिपाकर कवि की कल्पना यह है कि राहु चन्द्र की कलाओं को खाता जाता है / शुक्लपक्ष में चन्द्रमा की एक-एक कला फिर प्रकट होती रहती है। इस पर कवि कल्पना कर रहा है कि मानो राहु पहले कृष्णपक्ष में खाई हुई चन्द्रमा को कलाओं को उगल रहा हो। यहाँ 'अमन्यत' उत्प्रेक्षा का वाचक है, अतः उत्प्रेक्षा है किन्तु उसके मूल में अपह्न ति काम कर रही है, इसलिये यहाँ इन दोनों का अगाङ्गिभाव संकर है। 'कला' 'कला' 'किल' में दो से अधिक बार आवृत्ति होने से छेक न होकर वृत्त्यनुप्रास है // 66 // 'पुराहठाक्षिप्ततुषारपाण्डुरच्छदावृतेर्वीरुधि बद्ध विम्रमाः। मिलन्निमीलं ससृजुर्विलोकिता नमस्वतस्तं कुसुमेषु केलयः // 17 // अन्वयः-पुरा हठा...वृतेः नमस्वतः वीरुधि बद्धविममाः कुसुमेषु केलयः विलोकिताः सत्यः तं मिलन्निमीछम् विदधुः। टीका-पुरा पूर्वम् आदी इत्यर्थः हठा०-हठात् बलात् माक्षिप्ताः आकृष्टाः (पं० तत्पु.) तुषार-पाण्डुराः ( कर्मधा० ) तुषारेण = हिमेन पाण्डुराः = श्वेताः (10 तत्पु० ) ये छदा% पत्रापि ( कर्मधा० ) तेषाम् आवृत्ति:= आवरणम् ( प० तत्पु० ) येन तथाभूतस्य ( ब० वी०) नमस्वतः वायोः वीरुधि= लतायाम् ('खता=प्रतानिनी वीरुद्' इत्यमरः ) बद्धाः = कृता इत्यर्थः विभमाः=भ्रमणानि (कर्मधा०) तुषारश्वेतपत्राणि बलात् उछ्यवायोः लतायां विविध भ्रमणा नीत्यर्थः कुसुमेष - पुष्पेषु केलयः क्रीडाः (च) विलोकिताः दृष्टाः सत्यः सम् = नलम् मिलन संयुज्यमान: निमीलः= नेत्र संकोच; ( कर्मधा० ). यस्य तथाभूतम् निमीलितचक्षुष्कमित्यर्थः (ब० बी० ) संसृजुः चक्रुः / वायोः लतायां पुष्पेषु च विविध-क्रीडामवलोक्य विरहित्वात् असम 1. पुरो 2. पाण्डर

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