Book Title: Naishadhiya Charitam 01
Author(s): Mohandev Pant
Publisher: Motilal Banarsidass

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Page 127
________________ नैषधीयचरिते 'अयोगमाजोऽपि नृपस्य पश्यता तदेव साक्षादमृतांशुमाननम् / पिकेन रोषारुणचक्षुषा मुहुः कुहूरुतायत चन्द्रबैरिणी // 10 // अचयः-आयोगमाजः अपि नृपस्य तत् आमनम् साक्षात् अमृतांशुम् एव पश्यता रोषारुप. चक्षुषा पिकेन मुहुः 'कुहू'-रुता चन्द्र-वैरिणी ( कुहूः) आहूयत। टीका-अयोगम् = विरहम् दमयन्त्या इति शेषः मजति - जुषते इति तथोक्तस्य ( उपपद तत्पुर) अपि नृपस्य = राशो नलस्य तत् = प्रसिद्धम् प्राननम् =मुखम् साक्षात् = प्रत्यक्षम् अमृतम् अंशुष = किरणेषु यस्य तथाभूतम् ( ब० बी०) चन्द्रमित्यर्थः एव पश्यता अवलोकयता विरहेऽपि चन्द्रवत् मुख सौन्दर्य दृष्ट्वोत्यर्थः रोषेण क्रोधेन अरुणे = रक्ते ( तृ० तत्पु०) चक्षुषी= नेत्रे (कर्मधा० ) यस्य तथाभूतेन ( ब० वी०) पिकेन-कोकिलेन मुहुः पुनःपुनः 'कुहू' इति हताशब्देन चन्द्रस्य वैरिणो शत्रुभूता कुहूः भाहू यत= आकारिता वियोगकारणात् नलस्य मुख-चन्द्रं नेषदपि म्लानि मजतीति कोपारुणचक्षुः पिकः 'कुहू-कुहू' इति रुतेन कुहूमाकारयदिति भावः ('कुवः स्यात् कोकिलालाप-नष्टेन्दुकलयोरपि' इति विश्वः ) // 10 // व्याकरण-माजः म+विष् कर्तरि / चक्षुः चष्टे पव्यतीति /चश् + उस शिच्च / रुव/+विप् भावे / आहूयत आ+V+लङ् कर्मवाच्य / हिन्दी-( दमयन्ती के ) वियोग में रहते हुए भी राजा (नल ) के मुख को साक्षात् चन्द्रमा ही देखते हुए, क्रोध में आँखें लाल-लाल किये कोयल ने 'कुहू' 'कुहू' शब्द से ( मानो ) चन्द्रमा की वैरी कुहू बुलाई // 100 / टिप्पणी--इन में कोयल स्वभावतः 'कुहू' 'कुहू' करके कूक रही थी। इस पर कवि 'कुहू' शब्द में श्लेष रखकर यह कल्पना कर रहा है कि मानो 'कुहू' 'कुहू' पुकार कर वह कुहू ( अमावास्या ) को बुला रही है जिससे नल के मुख-चन्द्र को चमक जाती रहे। कोयल की आखें भी स्वमावतः लाल होती हैं। उसपर गो कवि-कल्पना यह है कि मानो वह क्रोध से आँखें लाल किए हुए हो / ये दोनों उत्प्रेक्षायें गम्य हैं, वाच्य नहीं / कार नल के आनन पर जमृतांशुत्व का आरोप होने से रूपक है / इस प्रकार रूपक, श्लेष और दो उत्प्रेक्षाओं का संकर है। शब्दालंकार वृत्त्यनु. प्रास है / 'अमृतांशु' शब्द से सम्बन्ध रखने वाले अवधारणार्थक 'एव' शब्द को वहाँ न रखकर 'तत्' के साथ रखने में अस्थानस्थपदव दोष बन रहा है // 10 // अशोकमर्यान्वितनामताशया गतान्शरण्य गृहशोचिनोऽध्वगान् / अमन्यतावन्तमिवैष पल्लवैः प्रतीष्टकामज्वलदस्त्रजालकम् // 101 // . ___ अन्वयः-एषः पल्लव: प्रतीष्ट...कम् अशोकम् अर्थान्वितनामताशया शरण्यम् गतान् गृहशोचिनः अध्वगान् अनन्तम् इव अमन्यत / टोका-एषः = नलः पल्लवैः= किसलयैः प्रतीष्ट०-प्रतीष्टम् = प्रतिगृहीतं कामस्य = मदनस्य ( 10 तत्पु० ) ज्वलत् = दीप्यमानम् अस्त्र-जालकम् = अस्त्रसमूहः ( कर्मधा० ) अस्त्राणाम् १.वियोग

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