________________ प्रथमः सर्गः 8 व्याकरण-धात्री दधति याम् इति धा+ष्ट्रन् + ङोप ( धाय ) / नामितः /नम् +णि+ तः कर्मणि / हिन्दी-(जो ) वृक्ष जिसकी गोद में बड़े हुए हैं, उस धात्री (भूमि, धाय ) को फलबाहुल्य के कारण अत्यन्त झुके हुये सिरों से नमन करते हुए उन ( वृक्षों ) का वह ( नल ) क्यों न अभिनन्दन करता ? / / 18 // टिप्पणी-यहाँ भी कवि ने प्रकृति का चेतनीकरण किया है। धात्री आदि शब्दों में श्लेष रखकर ध त्री ( पृथिवी) पर बड़े होकर ( फलों की प्रचुरता के कारण उसकी ओर नमन कर रहे प्रस्तुत वृक्षों पर धात्रो (धाय ) को गोद में पले-पुसे और बाद को उसे नमन करने वाले अप्रस्तुत पुत्रों का व्यवहार-समारोप करके यहाँ भी कवि समासोक्ति बना रहा है। पहले और दूसरे पाद में 'अनाम्' 'अनाम्' की तुक बन जाने से अन्त्यानुप्रास और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है / / 98 / / नृपाय तस्मै हिमितं वनानिलैः सुधीकृतं पुष्परसैरहमहः / विनिर्मितं केतकरेणुमिः सितं वियोगिनेऽदत्त न कौमुदीमुदः // 99 / / अन्वयः-वनानिलैः हिमितम् पुष्प-रसैः मुधोकृतम् , केतक-रेणुभिः ( च ) सितं विनिर्मितम् अहमहः वियोगिने तस्मै नृगय कौमुदी-मुदः न अदत्त / टीका -वनस्थ-काननस्य अनिलाः = पवनाः तैः (10 तस्पु०) हिमितम् = हिमोकृतम् शीतली कृतमिति यावत, पुष्पाखां कुसुमानां रसैः = मकरन्दैरित्यर्थः सुधीकृतम् = अमृतीकृतम् (50 तत्पु० ) केतकोनाम् = केतकी-पुष्पाणाम् रेणुभिः-धूलिभिः परागैरिति यावत् सितम् = श्वेतम् विनिर्मितम् = कृतम् अहमंडः अह्नः = दिवसस्य महः = तेजः ('महस्तून्सव-तेजसोः' इत्यमरः) (10 तत्पु० ) वियोगिने= विरहिणे तस्मै नृगय=राशे नलाय कौमुद्याः=चन्द्रिकायाः मुदः आनन्दान् न अदत्त = प्रायच्छत् , दिने सर्वस्या अपि चन्द्रिका-स मग्रथा उपपादनेऽपि नलो विरहिवात् न प्रसन्नो जात इति भावः। व्याकरण-हिमितम् = हिमम् शीतलं करोतीति हिम+ पिच् ( तत्करोत्यर्थे ) हिमयति (नामधातु बनाकर ) निष्ठा में क्त। ध्यान रहे कि हिम शब्द विशेषण है ( 'तुषारः शीतलः शीतो हिमः सप्तान्यलिङ्गकाः' इत्यमरः)। सुधीकृतम् असुधा सुधा सम्पद्यभानं कृतम् इति सुधा+चि+ छ। अर्महः अहन्+महः सन्धि में ('रोऽनुपि' पा० 8.2.66 ) से रेफादेश / मुद:/मुद्+ वित्र मावे। हिन्दी-वन की पवनों से शीतल बनाया हुआ पुष्प-मकरन्दों से अमृतमय किया हुआ और केड़े के परागों से श्वेत बनाया हुआ ( भी ) दिन का तेज उस विरही नल को चौदनी के आनन्दों को नहीं दे पाया // 99 / / 7 टिप्पणी-यहाँ आनन्द के कारण वनानिल आदि के होते हुए भी आनन्द-रूप कार्य नहीं हो रहा है, इसलिए विशेषोक्ति अलंकार है / 'मुदी' 'मुदः' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 16 //