Book Title: Naishadhiya Charitam 01
Author(s): Mohandev Pant
Publisher: Motilal Banarsidass

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Page 121
________________ नैषधीयचरिते चमकीले पराग-कण शाण से निकल रहे अग्नि-स्फुलिंग वन गये। इस तरह यहाँ उत्प्रेक्षा है, जोक्स शम्द द्वारा वाच्य है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है // 12 // तदङ्गमुद्दिश्य सुगन्धि पातुकाः शिलोमुखालीः कुसुमाद् गुणस्पृशः / स्वचापदुर्निर्गतमार्गणभ्रमात् स्मरः स्वनन्तीरवलोक्य लज्जितः // 93 // अन्वयः-सुगन्धि तदङ्गम् उद्दिश्य गुणस्पृशः कुसुमात् पातुकाः स्वनन्तोः ( च ) शिलीमुखाली: अवलोक्य स्मरः स्व-चाप-दुनिर्गत-मार्गण-भ्रमात् लज्जितः // 12 // टीका-सु+सुष्टु गन्धो यस्य तत् (प्रादि ब० बो०) तस्य = नलस्य अङ्गम् शरीरम् (10 तत्पु० ) उद्दिश्य= लक्ष्योकृत्य गुणम् = गन्धम अथ च नौज़म् स्मृशतीति तथोक्तात् ( उपपद तत्पु०) कुसुमात % ( जातावेकवचनम् ) पुष्पेभ्यः अथ च पुष्प रूपाच्चापात् पातुका:-- पतन्तीः स्वनन्तीः= शब्दायमानाः शिलीमुखानाम् नमराणाम् अथ च वापानाम् ( 'अलिबायो शिलीमुखौ' इत्यमरः ) पाली:=पंक्तोः (10 तत्पु० ) अवलोक्य =ष्ट्वा स्मरः कामः स्वः= स्वकीयः चापः= धनुः (कर्मधा० ) तस्मात् दुर्निर्गताःन सम्यग गताः ये मार्गणाः = बाणा: (पं० तत्पु० ) तेषां भ्रमात् = भ्रान्तेः लज्जितः= लज्जांगत (2) अमवादति शेषः, बाणो हि धनुषा न सम्यक् मुक्तः शब्दायमानश्च लक्ष्यं यदि प्राप्नोति, तहिं धारिणो लज्जा सामाविकीति भावः // 93 // ध्याकरण-सुगन्धि गन्धान्त बहुव्रीहि में समासान्त '' प्रत्यय हो जाता है। पातु काः पतितुंशीलमेषामिति/पत् + उकञ् (ताच्छील्ये ) / गुणस्पृशः /स्पृश् +क्विप् तिरि / स्वनन्तीः। स्वन्+शतृ +ङीप द्वि० ब०। हिन्दी-उस ( नल ) के अच्छो सुगन्धि-युक्त शरीर को लक्ष्य बनाकर ण (गन्ध ) वाले कुमुम से हटकर जा रहो एवं शब्द कर रही शिलीमुखों (भ्रमरों) की पंक्तियों के देखकर कामदेव इस भ्रान्ति से लज्जित जैसे हो उठा कि गुण ( प्रत्यञ्चा) वाले कुसुम-रूर चाप से गलत तरीके से छूटी एवं सनसना रही यह मेरे शिलीमुखों (बापों) की पंक्तियाँ तो नहीं वया // 63, टिप्पणी-इस श्लोक में कवि का युण, कृनुम और शिलीमुख शब्दों में श्लेष ‘खा हुमा है अर्थात् गुण गन्ध और धनुष की डोरो को, कुसुम फूल और फूल रूप धनुष को तथा ठिोमुख भ्रमर और बाणों को भी बता देता है / झकारती हुई भ्रमर-पंक्ति में काम को अपनी गलत छो हुई बाणपंक्ति का भ्रम हो उठा / गलत छोड़ा हुआ बाण शब्द करता हुआ लक्ष्य पर नहीं पहुँता बोच में होफिस हो जाता है / इस तरह यहाँ भ्रमरों पर बाणों की भ्रान्ति होने से भ्रान्तिमान अंकार है। भ्रान्ति के कारण कामदेव के लज्जित होने की कल्पना की जाने मे गम्य उत्प्रेक्षा है, बिका श्लेष और भ्रान्तिमान् से अङ्गाङ्गि-माव संकर हो जाता है। किन्तु श्लेषमुखेन ने शिलीमुख सेणां तथा कुसुम से धनुष का पूर्व प्रतिपादन हो जाने पर भी कवि ने बाद को मार्गण और चाका फिर - उल्लेख करके यहाँ पुनरुक्ति दोष के लिए स्थान दे दिया है / / 13 / /

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