________________ नैषधीयचरिते पन्यानं गच्छति इस अर्थ में पथिन् शब्द से प और पन्थादेश / द्विजान् द्विजायते इति द्वि+/जन् +ड। पक्षी पेट और अण्डा, ब्राह्मण भी पेट और संस्कार-इन दोनों से होने के कारण दिन कहलाते हैं, देखिये धर्मशा० 'जन्मना जायते शूद्रः संस्काराद् द्विज उच्यते / ईक्षणम् ईक्ष्यतेदृश्यतेऽनेनेति / +ल्युट करणे / ऐतिष्ठ-/ईक्ष् +लुङ कर्तरि / हिन्दी-"अरे ( यटोही!) तू दिन-प्रतिदिन अधिक कृश होता जा, फिर-फिर मूर्छा खाता जा और ताप रखता जा"-इस प्रकार बटोहियों को मानो शाप देते हुये लाल-लाल आंखों वाले कोयल-पक्षियों को नल ने खेद के साथ देखा / / 90 // टिप्पणी-यहां कोयलों को शाप देते हुये-जैसे बनाकर उत्प्रेक्षा है, जो इव-शब्द वाच्य है। कोयलों की आंखें स्वमावतः लाल हुआ करती हैं किन्तु यहां क्रोध के कारण लाल होने को कल्पना को गई। द्विज शब्द श्लिष्ट होने के कारण ब्राह्मणों का वाचक मी है। क्रोष में आकर आंखें लाल किये भी शाप दे देते हैं / इस तरह यहां-जैसे क्रोध में लाल-लाल आंखे किये ब्राह्मण शाप दिया करते हैं, उसी तरह कोयल-पक्षो. मी पथिकों को शाप दे रहे थे यह उपमा-ध्वनि निकल रही है। 'रेधि' '२ऽधि' में यमक है / 'दिने-दिने' 'पुनः पुनः ‘में वीप्सार्थक द्विरुक्ति को कितने ही आलंकारिक वीप्सालंकार मान लेते हैं / / 99 // अलिस्रजा कुडमलमुच्चशेखरं निपीय चाम्पेयमधीरया धिया। स धूमकेतुं विपदे वियोगिनामुदीतमातक्षितवानशङ्कत // 9 // अन्वय-अलि-सजा उच्च-शेखरम् चाम्पेयम् कुङ्मलम् अधीरया धिया निपीय मातङ्कितवान् ( सन् ) सः वियोगिनां विपदे उदीतम् धूम-केतुम् अशङ्कत / टीका-भलीनाम् =भ्रमराणाम् स्त्रक-माला पंक्तिरित्थर्थः तया (10 तत्पु०) उच्चम् - उन्नतम् शेखरम् = अग्रम् ( कर्मधा० ) यस्य तत् (ब० वी०) चाम्पेयम् = चाम्पेयस्य = चम्पकस्य विकारं ( 'चाम्पेयश्चम्पको हेमपुष्पकः' इत्यमरः) कुछमलम् - कोरकम् चम्पकपुष्पकलिकामिति यावत् ( 'कुङ्मलो मुकुले पुसि' इत्यमरः अधीरया- धैर्यरहितया धिया=मुद्धया निपीय = सादरमवलोक्येत्यर्थः भातहितवान् = चकितो मीतश्च सन् सः नलः वियोगिनश्च वियोगिन्यश्चेति वियोगिनः = ( एकशेषद्वन्द्वः) तेषाम् विपदे विनाशाय उदीतम् - उदितम् प्रकटितमित्यर्थः धूमकेतुम् = उल्काम् उत्पात-सूचकं पुच्छलतारकमित्यर्थः प्रशइतः= तर्कितवान् // 91 // व्याकरण-चाम्पेयम् चाम्पेयस्य विकार इति चाम्पेय+यत् जिसका 'पुष्प-मूळेषु बहुलम् / से लोप होकर चाम्पेय ही रह जाता है किन्तु अर्थ-'चाम्पेय का विकासभूत' हो जाता है। निपीय इसके लिए इस सर्गका पहला श्लोक देखिए। भातरितवान् मा+Vतङ्क+कवत् / उदीतम् उत् +5+क कतरि / धूमकेतु धूमः केतुः-चिह्नं यस्य सः। हिन्दी-भ्रमरों की पंक्ति से ऊपर उठे अग्रभाग वाले चम्पक-कुङ्मल को अधीर मन से देखकर 1. दशा 2. माशाकितवान्