________________ . . नैषधीयचरिते टिप्पणी-त्रपासरिदुर्गम्-मल्लिनाथ तथा अन्य टीकाकार यहाँ 'पा एव सरित्सा एव दुर्गम्' इस तरह विग्रह करके सपा पर सरित् का आरोप और फिर सरित् पर भी दुर्गव का आरोप करके दुर्ग का अर्थ किला ( प्राकार ) बता रहे हैं, किन्तु हमारे विचार से नदी पर भी दुर्गत्व के मारोप में कई स्वारस्य नहीं है, किला तरा नहीं जाता है, नदी तरी जाती है / कवि का अभिप्राय 'दुर्ग' से दुर्गमस्थल अर्थात् दुर्गम-दुस्तर-नदी है। यहाँ 'कुम्भ-युग' पर नवोपहारत्व का और त्रपा पर नदोष का आरोप होने से रूपक है; स्तन-युग पर कुम्भ-युगत्व का अमेदाध्यवसाय होने से मेदे अमेदारिशयोक्ति है, 'किम्' शब्द उत्प्रेक्षावाचक होने से उत्प्रेक्षा है; इस तरह वहाँ इन समी का संकर है / इसी तरह के माव के लिए सर्ग 2, श्लोक 31 भी देखिये / / 48 // अपहवानस्य जनाय यन्निजामधीरतामस्य कृतं मनोभुवा / अयोधि तजागरदुःखसाक्षिणी निशा च शय्या च शशारकोमला // 49 // अन्वयः-निजाम् अधोरताम् जनाय अपहृवानस्य अस्य मनोमुवा यत् कृतम् , तत् जागरदुःख-साक्षिणी शशाङ्क-कोमला शय्या च ( शशाङ्क कोमला ) निशा च अबोधि / टीका-निजाम् स्वकोयाम् अधीरताम् धैर्याभावं चञ्चलतामित्यर्थः जनाय लोकेभ्यः अपहवानस्य गोगयतः अपलपत इति यावत् अस्य नलस्य सम्बन्धे षष्ठी (उपरि ) मनोभुवा कामदेवेन यत् कृतम् जनितम् तत् जागरस्य निद्रा-क्षयस्येत्यर्थः दुःखम् कष्टम् (10 तत्पु० ) तस्य साक्षिणी प्रत्यक्षदर्शिनी शशः मृगविशेषः भकः चिन्हं यस्मिन् तथाभूतः (ब० वी०) चन्द्र इत्यर्थः तद्वत् कोमला मृदुः, अथवा शशः-मृगविशेषः तस्य अङ्कः उत्साः तद्वत् कोमला ( उपमान तत्पु० ) शय्या तल्पम् , अथ च शशाङ्कः चन्द्रः तेन कोमला रम्या (त. तत्पु०) निशा रात्रिः प्रबोधिशानवती अर्थात् कामदेवेन रात्रौ नलोपरि यावान् क्लेशातिशय आपातितः तम् शय्या रात्रिरेव च जानाति, राचौ काम-वेदनया शय्यायामसौ विलुठतिस्म निद्रां च न लमते स्मेति भावः / / 46 / / व्याकरण-अपहृवानस्य अप+/ह +शानच् इसके योग में श्लाघह ङ० [पा० 114.34 से जन शब्द से पञ्चमी के स्थान में चतुर्थी / जागर/जागृ+घञ् भावे, गुणः साक्षिणी सह+ अक्ष+इन् +डीप् ('साक्षाद् द्रष्टर संशायाम्' पा० 5 / 221 ) शय्या शय्यतेऽत्रति शी+क्यप् अयङ् +टाप् अबोधिV बुध् + लुङ् [अत्र कर्तरि चिप्प] / विनी-लोगों से अपनी अधीरत्ता छिपाते हुए नल पर कामदेव ने जो ( कुछ ) किया उसे (रातभर उसके) जागते रहने के दुःख की साक्षी शश [ खरगोश ] के अङ्क ( गोद के रोम ) की तरह कोमल शय्या एवं शशाङ्क [ चन्द्रमा ] से कोमल ( रमणीय ) बनी रात जानती थो।।४९।। टिप्पा -यहाँ नल में लज्जा नाम का व्यभिचारी भाव तथा वियोग की जागर-अवस्या बताई गई है। निशा और शय्या दोनों प्रस्तुतों का शशाङ्क कोमलत्व-रूप एक धर्म से सम्पन्ध बताने से तुल्य. योगिता अलंकार है और वह भी श्लेष-गर्भित // 49 // स्मरोपतप्तोऽपि भृशं न स प्रभुर्विदर्भराज तनयामयाचत / त्यजन्त्यसून् शर्म च मानिनो बरं त्यजन्ति न त्वेकमयाचिरावतम् // 50 //