________________ प्रथमः सर्गः हिन्दी-अश्वारोही-योग्य वेष से सुन्दर बना हुआ वह नल बड़े वेग वाले घोड़े को सुशोभित करके जाता हुआ नगर के लोगों ने आनन्दातिशय के कारण बिना जरा भी पलक झपकाए आँखों से देखा / / 66 // टिप्पणी-यहाँ 'वाह' 'वाहो', 'लोकि' 'लोकैः' में छेकानुपास और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है। 'रयं' 'हयं में 'अयं' का तुक होने से अन्त्यानुप्रास भी है। यद्यपि अन्त्यानुमास पादान्त में हुआ करता है, तथापि साहित्यदर्पणकार के 'अयं पदान्तेऽपि भवति यथा 'मन्दं हसन्तः पुलकं वहन्तः' इस उक्ति के अनुसार यह पदान्त-गत मी हो नाता है / .66 // क्षणादथैष क्षणदापतिप्रमः प्रमानाध्येयजवेन वाजिना। सहैव तामिर्जनदृष्टिवृष्टिभिर बहिः पुरोऽभूत्पुरुहूतपौरुषः // 67 // अन्वयः-अथ क्षणदा-पति-प्रभः पुरुहूत-पौरुषः एषः प्रमजनाध्येय-जवेन वाजिना क्षणात तामिः जनदृष्टि-वृष्टिभिः सह एव पुरः बहिः अभूत् / ____टीका-अथ = एतदनन्तरम् क्षणदा-रात्रिः ['रात्रिखियामा रणदा क्षपा' इत्यमरः] तस्याः पतिः= स्वामी चन्द्र इत्यर्थः ( 10 तत्पु०) तस्य प्रभा इव प्रभा कान्तिः ( उपमान तत्पु०) यस्य तथाभूतः (ब० वी०) पुरुहूतः इन्द्रः तस्य पौरुषम् बलं ( 10 तत्पु० ) इव पौरुषम् ( उपमान तत्पु० ) यस्य सः (ब० वी० ) एषः नलः प्रमजनो वायुः तन अध्येयः अध्येतुं योग्यः (तृ० तत्पु०) जवः वेगः ( कर्मधा० ) यस्मात् तथाभूतेन (ब० वी० ) वाजिना अश्वेन ( करप. भूतेन ) क्षातक्षणे एव तामिः दृष्टीनाम् = नेत्र, पाम् वृष्टिभिः = पातः इत्यर्थः सह =समम् एव पुरः = नगरात् वहिः= अभूत् अभवत् / नलः सहैव नगरतः लोकदृष्टितश्चापिदूरममव दित्यर्थः / / 67 / / व्याकरण:-अणदा क्षणम् उत्सवम् आनन्दमिति यावत् ददाति ( रात्रिश्चरेभ्यः ) इति क्षण+/दा+कः / यास्क ने रात्रि को भी रात्रि इसीलिये कहा है कि वह 'रमयति = आनन्दयति (नक्तंचराणि भूतानि ) / पुरुहूतः पुरुमिः= बहुभिः अथवा पुरु बहु यथा स्यात्तथा इतः स्तुतः इति पुरु+/ह+क्तः कर्मणि। प्रभम्जन-प्रमनक्ति त्रोटयति वृक्षादोन् इति प्र+/भञ्ज + ल्युः कर्तरि / अध्येयः अध्येतुं योग्य इति अधि+:+यत्। दृष्टिः, वृष्टिः दृश् , वृष् +क्तिन् मावे / पुरो बहिः के योग में पञ्चमी। हिन्दी-तदनन्तर चन्द्रमा की सी कान्ति तथा इन्द्र का-सा बल वाला यह नह जायु को (मी) शिक्षा देने वाले घोड़े से लोगों के उन दृष्टि पातों के साथ ही नगर से बाहर हो गया।। 67 // टिप्पणी-यहाँ राजा की उपमा सौन्दर्य में चन्द्रमा से एवं पौरुष में इन्द्र से दी जाने के कारण उपमा है। लोगों की आँखों से और नगर से एक साथ ही ओझल होना सम्भव नहीं। पहले नल नगर से बाहर हुमा, तब लोगों की आँखों से बाहर हुआ, अर्थात् लोगों की आँखों से बाहर होने का करण है, उसका नगर से बाहर हो जाना, किन्तु कारण को पहले और कार्य को पीछे न बताकर यहाँ दोनों एक साथ बताये गये हैं, इसलिए यह कार्यकारण-पौर्वापर्य-विपर्ययातिशयोक्ति है और