________________ 64 नैषधीयचरिते (10 तत्पु० ) वनस्य विलासकाननस्य अथ च जलस्य ( 'वने सलिल-कानने' इत्यमरः) अन्तः= प्रदेशः (10 तत्पु०) पर्यन्तः = सीमा ( कर्मधा० ) यस्मिन् ( ब० वी० ) कर्मणि यया स्यात्तथा, सस्पृहम् स्पृहया= अभिलाषेण सह वर्तमानम् ( ब० वी०) यथा स्यात् तथा उपेप्य = गत्वा तस्मिन् = नृपे नले प्रवीण = प्रतिक्रान्त इत्यर्थः दृष्टः = दर्शनस्य पन्थाः- मार्ग: ( 10 तत्पु०) येन तथ भूते (ब० वी० ) अर्थात् दृङमार्गागो वरे सति न्यवर्ति निवृत्तम् / यथा जलप्रदेशसीमां प्राप्य प्रवसति बन्धौ दृष्टद्यतीते सति स्वजना निवर्तन्ते, तथैव लोक-लोचनान्यपि वनसीमां गते नले दृष्टयनीते सति निवृतानीति भावः / / 75 / / व्याकरण-उपेत्य उप+Vs+ल्यष / इक् पश्यतीति/दृश् +क्विप् कर्तरि / 'राजन्' शब्द की तरह पथिन्' शब्द भी समास में अकारान्त हो जाता है / दृष्टिः दृश्यतेऽनयेति / दृश्+क्तिन् करणे / न्यवर्ति = नि+/वृत् वुङ् माववाच्य / हिन्दी-निस प्रकार ( प्रवासी के ) पीछे-पीछे जा रहे बान्धव-गण वन-( जल )-प्रदेश की सीमा तक उत्सुकमाव के साथ जाकर क्रमशः ( उसके) दृष्टि से ओझल हो जाने पर वापस लौट आते हैं, उसी प्रकार नगरवासी लोगों की ऑखे ( विलास ) वन ( कानन ) के प्रदेश की सीमा तक चाव से नाकर उस (नम ) के दृष्टि से ओझल हो जाने पर वापस मुड़ गई / 75 / / टिप्पणी-यहाँ लोगों को आँखों की तुलना प्रवास में जा रहे मित्र को छोड़ने जाने वाले बन्धुगण से की गई है। पीछ पीछे जाना और 'वनान्त-पर्यन्त' जाकर लौट आना दोनों में समान धर्म है / वन शब्द में श्लेष है / जल प्रदेश तक छोड़ने जाने की प्रथा का कालिदास ने मी उल्लेख किया है-'ओदकान्तात् स्निग्धो जनोऽनुगन्तव्यः ( शकु० अक 4)', शास्त्रों में भी लिखा हुआ है-'उदकान्तं प्रियं पान्थमनुव्रजे'। इसलिए यहाँ श्लिष्टोपमा है। बन्धु शब्द सादृश्य बताने में 'सखा' शब्द की तरह लाक्षणिक है / 'बन्धु' 'बन्धु' में यमक और अन्यत्र अनुपास है। बनान्त पर्यन्त-यहाँ 'अन्त' और 'पर्यन्त' शब्दों में पुनरुक्ति सी मालूम पड़ रही है किन्तु अन्त शब्द का अर्थ यहाँ 'प्रदेश' है। चाण्डू पण्डित ने 'वनान्तः वनैकदेशः' व्याख्या की है। भवभूति ने मी इसी अर्थ में 'यत्र रम्यो वनान्तः' ( उत्त० 2 / 25 ) प्रयोग किया है। ततः प्रसूने च फले च मञ्जले स सम्मुखस्थाङ्गुलिना / जनाधिपः / निवेद्यमानं वनपालप्राणिना ब्यलोकयत्कानन कामनीयकम् // 76 // अन्धयः-ततः सः जनाधिपः मन्जुले प्रसूने फले च सम्मुखस्थाङ्गुलिना वनपाल-पापिना निवेधमानम् कानन-कामनायकम् व्यलोकयत् / टीका-ततः = अनन्तरम् सः जनाधिपः नरेन्द्रः मम्मुले-रमणीयें प्रसूने पुष्पे फलेच जातावेक-वचनम् पुष्प-फलेष्वित्यर्थः सन्मुखस्था अभिमुखी अहुलिः ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतेन (ब० बी० ) वनपालस्य मालाकारस्य पाखिना=करेण (50 तत्पु०) निवेद्यमानम् = ज्ञाप्यमानन् काननस्य=विलासोववनस्य कामनीयकम् =रामणीमकम् सौन्दर्यमिति यावत् व्यलोकयत्= 1. सम्मुखीना 2. रामणीयकम्