________________ वैषधीयचरिते ने हो जो-खुर परिमाण नितना ( छोटा ) बना दिया-इस कारण मानों घोड़े विविध चालों को छोड़. कर गोल चक्कर काटने को क्रिया को रमणीयता से ( विहार ) स्थली को शोभित कर रहे थे // 72 / / टिप्पणी-वैसे तो घोड़े स्वभावत: मण्डलाकार दौड़ रहे थे लेकिन कवि-कल्पना यह है वे सीधा दौड़े तो कहाँ दौडे, दिशाओं में शत्र दौड़ गये थे और समुद्र तक यश चला गया। नया अक्षुण्ण प्रदेश जब रहा ही नहीं; तो बेचारों को चक्कर, ही लगाना पड़ रहा है / इस तरह यहाँ उत्प्रेक्षा है / 'मण्ड' 'मण्डि' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। तीसरे और चोथे पाद के अन्त में 'अहो' 'मली' का तुक मिलने से अन्त्यानुपास है / / 72 / / भचीकरच्चारु हयेन या भ्रमीनिजातपत्रस्य तलस्थले नलः / मरुस्किमद्यापि न तासु शिक्षते वितत्य वास्यामयचकमक्रमान् / / 73 // अन्वय-नलः निजातपत्रस्य तल स्थले हयेन या भ्रमीः चारु अचीकरत् , तासु मरुत् वात्यामय. चक्र-चनमान् वितत्य अद्य अपि न शिक्षते (किम् ) / टीका-नखः निजम् = स्वीयम् यत् प्रातपत्रम् - छत्रम् ( कर्मधा० ) तस्य तलस्य स्थले अधोभागे ( 10 तत्पु. ) हयेन = अश्वेन याः भ्रमीः = मण्डलाकारभ्रमपनि चारु रमणीयतया यथा स्यात्तथा अधीकरत् = कारितवान् , तासु-भ्रभीषु भ्रमणविषये इत्यर्थः महत्-वायुः वाल्या बातसमूहा एव वास्यामया-चक्रेण मण्डलाकारेण चक्रमाः=चक्रमणानि नुहुर्मुहुः भ्रमणानीति यावत् (तृ० तत्पु०) तान् वितत्य- कृत्वा अद्यापि = अस्मिन् दिने अपि शिचेतअभ्यस्यति ( किम् ? ) अपि तु शिक्षते एवेति काकुः / वायुः अद्यापि यत् मण्डलाकर भ्रमपानि करोति तत् नलाश्व-मण्डलाकारभ्रमणविषयकम् 'अभ्यास' करोतीति भावः / / 72 / / व्याकरण-भ्रमि/भ्रन्+( कृष्यादित्वात् ) इक् / अचीकरत् + णिच् +लुङ कर्तरि, विकल्प से द्विकर्मकता नहीं हुई। वास्यामयाः वात्या एवेति वात्या+मयट् स्वरूपाथें / पात्या वातानां समूह इति वात् +यत् (पाशादित्वात् +टाप् ) चक्रमान्-पुनः पुनः क्रमति इति चक्रम्यते ( यडन्त ) इति चकम् +छत्र् मावे / वितत्य वि+/तन ल्यप् / अघ गब्द को यास्क ने अस्मिन् पवि का सक्षिप्त रूप माना है। हिन्दी-नल अपने छत्र के नीचे घोड़े द्वारा अच्छी तरह जो चक्कर कटवाता था, उनकी वायु आज भी बार-बार औधी के बवडरों को खड़ा करके क्या शिक्षा नहीं ले रही है ? टिप्पणी-चारु-नारायण ने इस शब्द को 'भ्रमि' का विशेषण बनाकर सम्यक् (मनोशार ) अर्थ किया है किन्तु विशेषण होनेपर 'चारू: या चावोः रूप बनना चाहिये था, अतः हमने क्रियाविशेषण ही बनाया है। आजकल स्वभावतः वायु-द्वारा उठाये जा रहे बवंडरों पर शिक्षा लेनेकी कल्पना की गई है, अतः उत्प्रेक्षा है, वाचक शब्द के न होने से वह गम्य है, वाच्य नहीं / 'वितस्य' 'वात्या' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्राप्त है / / 7 / / विवेश गत्वा स विलासकाननं ततः क्षणाक्षोणिपतिर्धतीच्छया। प्रवालरागच्छुरितं सुषुप्सया हरिर्धनच्छायमिवाम्मसा' निधिम् // 7 // 1. मिवार्यता