Book Title: Naishadhiya Charitam 01
Author(s): Mohandev Pant
Publisher: Motilal Banarsidass

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Page 91
________________ 5 . नैषधीयचरिते अजनभूमीतटकुटनोस्थितै'रुपास्यमानं तरणेषु रेणुमिः / रयप्रकर्षाध्ययनार्थमागतैर्जनस्य चेतोभिरिवाणिमाकितैः // 59 // अन्वयः-अजम्न...त्यतै; रेणुभिः रय-प्रकर्षाध्ययनार्थम् आगतैः अणिमाङ्कितैः जनस्य चेतोमिः इव . चरणेषु उपास्यमानम् / 59 // टीका-अजस्त्रम् निरन्तरम् तथा स्यात्तथा भूम्या; पृथिव्याः तटस्य तलस्येत्यर्थः कुट्टनेन शोदनेन ( उभयत्र 10 तत्पु० ) उस्थितैः उद्गतः ( तृ तत्पु० ) रेणुभिः धूलिमिः रयस्य वेगस्य प्रकर्षः अतिशय: तस्य अध्ययनार्थम् पठनार्थम् ( उभयत्र प० तत्पु० ) भागतेः आयातेः अणुनो मावः अणिमा अणुत्वम् अत्यन्तलधुपरिमाणमिति यावत् तेन अङ्कितः विशिष्टः युक्तरित्यर्थः अणुपरिमाणे रिति यावत् ( तृ० तत्पु० ) जनस्य लोकानाम् चेतोमिः मनोभिः इवेत्युत्प्रेक्षायाम् चरणेष पादेषु उपास्यमानम् सेव्यमानम् ( हयम् ) // 59 / / __ व्याकरण-उत्थितः उत् +/स्था+क्त कर्तरि / प्रकर्षः प्र+/कृष् +पञ् / अध्ययनार्थम अध्ययनायेति चतुर्थ्यर्थ में अर्थ के साथ नित्य समास / अणिमा अयोः अणुनो वा भाव इति भणु+ इमनिच् / ध्यान रहे कि भाव अर्थ में इमनिच् प्रत्यय से बनने वाले अणिमा, महिमा, गरिमा आदि शब्द पुल्लिङ्ग होते हैं। उपास्यमानम् उप+/आस् +शानच् कर्मवाच्य / हिन्दी-जो ( घोका ) लगातार ( पैर से ) मृतल को कूटते रहने के कारण उठी हुई धूलियों के अतिसूक्ष्म कणों से ऐसा लग रहा था मानो वेग की अधिकता सीखने हेतु आये हुए लोगों के अणु परिमाण वाले मन ( उसके ) चरणों की सेवा कर रहे हों / / 59 / / टिप्पणी-यहाँ गी तथ्य यह है कि जमीन खोदते रहने से सूक्ष्म धूलि-कण उसके पैरों पर चिपके रहते थे, इस पर कवि की कल्पना यह है कि वे धूलिकण नहीं हैं, प्रत्युत मानो घोड़े से अधिक वेग सोखने हेतु आये हुए मन हों। मन का वेग बड़ा तेज होता है। वह क्षण में कहीं का कहीं पहुँच जाता है। किन्तु नल का घोड़ा वेग में मन को भी परास्त किये हुए था। तभी तो मन उसके चेले बने,। इस तरह यहाँ उत्प्रेक्षालंकार से व्यतिरेकालंकार की ध्वनि निकल रही है / साथ ही यहाँ स्वभावोक्ति भी है किन्तु दार्शनिक दृष्टि से कवि यहाँ एक त्रुटि कर बैठा है और वह यह कि उसने सूक्ष्म धूलि कण के लिए मन का अप्रस्तुत विधान कर दिया है। 'अयोगपद्यात् शानाना तस्थाणुत्वमिहेष्यते' इस तर्क से मन अणु माना गया है। अणु परिमाण परमाणु और द्वयणुक में ही रहा करता है और साथ ही अणु परिभाष वाले पदार्थ इन्द्रियातीत होते हैं, देखने में नहीं आते। घोड़े के पैरों पर लगे धूलि-कण दीख रहे हैं, अतः वे व्यणुक है, जो महत्परिमाय वाले होते हैं। दीखने वाले महत्परिमाण के धूलिकणरूपी त्र्यणुकों पर न दोखने वाले अणु परिमाण वाले मनों की कल्पना में सामजस्य नहीं बैठ रहा है // 59 // चलाचलप्रोथतया महीभृते स्ववेगदर्यानिव वक्तमुत्सुकम् / भलं गिरा वेद किलायमाशयं स्वयं हयस्येति च मौनमास्थितम् // 6 // 1. नोद्गतै

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