________________ नैषधीयचरिते वर्षस्व-सन्बन्धे 'एतत् तु चन्दन-पे कर्पूरस्थाषिक-मागसंमिश्रणेन जातम्' इति कथयन् अपललाप // 51 // व्याकरण-विषादः वि+/सद्+पत्र मावे / अमिनयः अभि +/नी+अच् मावे / निःश्वासः निस् +/श्वस् पञ् मावे / ततिः तन्+क्तिन मावे। वियोगजाम् त्रियोग+/जन्+ +टाप् / विमावनम् वि+/भ्र+पिच +ल्युट मावे / अपवलापः अप+Vलप्+लिट् / हिन्दी- यह ( नल ) ( खोई हुई ) किसी ( वस्तु ) पर झूठ मूठ का खेद प्रदर्शन से वियोगबनित ( अपनी ) आहों का सिलसिला छिपा देता था; चन्दन-लेप में कपूर का अधिक भाग ( मिला ) बताने से ( चेहरे की ) सफेदी झुठला देता था / / 51 // _ टिप्पणी-यहाँ विरह-जनित श्वासों तथा शरीर की सफेदी को मृषा-विषाद और कपूर की सफेदी द्वारा छिपाया गया है, इसलिए मोलित अलंकार है। यह वहाँ होता है, जहाँ दो समान धर्म वाळे पदार्थों में से एक के द्वारा दूसरे का तिरोधान होता है। किन्तु विद्याधर का कहना है कि यहाँ व्याजोक्ति अलंकार है / व्याजोक्ति वहाँ होती है, जहाँ प्रकट हुई किसी बात को किसी छल से छिपा : दिया जाय। यहाँ विरह-जनित खेद तथा सफेदी मृषा-विषाद और कपूर से छिपाये गये हैं। हमारे विचार से यहाँ इन दोनों का सन्देहसंकर है।। 51 / / शशाक निह्वोतुमयेन' तस्प्रियामयं बभाषे यदलीकवीक्षिताम् / समाज एवानपितासु बैणिकैर्मुमूर्छ यत्पञ्चममूर्च्छनासु च // 52 // अन्वयः-अयम् ( नलः ) यत् अलीक-वीक्षिताम् प्रियाम् बमाणे, ( यच्च ) वैणिकः पञ्चममूर्छनासु आलपिताम् ( सतीषु ) समाजे एव मुमूर्छ, तत् अयेन निहोतुं शशाक। टोका-अयम् नलः यत् अलीकम् मिथ्यैव यथा स्यात् तथा वीक्षिताम् दृष्टाम् ( सुप्सुपेति समासः ) अर्थात् भ्रम-वशात् दृष्टिगोचरीमूताम् प्रियाम् दमयन्तीम् बभाषे लपितवान् भ्रमदृष्टदमयन्त्या सह वार्तालापं कृतवान् इति भावः, यत् च वैखिकः वीणावादिभिः पञ्चमस्य पञ्चमस्वरस्य मूर्छनासु आरोहाबरोहेषु (प. तत्पु० ] मालपितासु उच्चारितासु गीतास्वित्यर्थः सतीषु समाजे सभायाम् एव मुमूर्छ मूर्छा गतः तत् भयेन भाग्येन ( 'अयः सुखावहो विधिः' इत्यमरः ) निह्नोतुम् शशाक अशक्नोत् / नकः पञ्चम-स्वरेण गीते गीयमाने मूर्छितोऽभवत्, यतः कोकिल-पश्चम-स्वरवत् गोतस्य पञ्चम स्वरोऽपि कामोद्दीपको भवतीति भावः / / 52 / / व्याकरण-बभाषे भाष् +लिट् / वैणिकैः वीणा शिल्पमेषामिति वीणा+ठञ् / समाजः सम् +अ+घञ् , मनुष्यभिन्न पशु-समुदाय में अप होकर समजः बनता है। हिन्दी-यह ( नल) जो झूठमूठ ही देखी गई प्रिया ( दमयन्ती ) से बात करता था तथा वीणावादियों द्वारा (गीत के ) पञ्चम स्वर के स्वरारोहावरोहों में आलाप भरे जाने पर जो सभा में हो मूर्छित हो उठता था, उसे ( वह ) माग्य से ही छिपा सकता था / / 52 / / टिप्पणी-निह्वोतुमयेन--इस शब्द पर टीकाकारों की अपनी भिन्न-भिन्न व्याख्यायें हैं / नरहरि का कहना है-'अयं नलो मिथ्यादृष्टां प्रियां यद् बमाणे, तन्निहोतुं न शशाक / अये इति विषादे / " 1. अये नः अनेन /