Book Title: Naishadhiya Charitam 01
Author(s): Mohandev Pant
Publisher: Motilal Banarsidass

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Page 88
________________ प्रथमः सर्गः हिन्दी-वह नल प्रयत्न करता हुआ भी जब सभा में काम-विकार के चिह्नों ( प्रलाप-मूर्जा बादि ) के बिना बैठ न सका तब उद्यान में विचरण करने के बहाने निर्जन स्थान सेवन करना चाहा // 55 // टिपखी--यहाँ भ्रमण का बहाना बनाने से कैतवापति अलंकार है। शब्दालंकार वृत्त्यनुपात है। क्षणम्-क्षण शब्द का अन्वय श्लोक के पूर्वार्ध से हो रहा है, इसलिए एक पद के श्लोक के दूसरे अर्थ में जाने से अर्धान्तरैकपदता दोष बन रहा है / / 55 // अथ श्रिया भसितमत्स्यलाम्छनः समं वयस्यैः स्वरहस्यवेदिभिः / पुरोपकण्ठोपवनं किलेक्षिता दिदेश यानाय निदेशकारिणः // 56 // अन्वयः-अथ भिया मरिसतमत्स्यलान्छनः ( नल ) स्व-रहस्य-वेदिभिः वयस्यैः समम् पुरोपकण्ठोपवनम् ईक्षिता किल निदेशकारिणः यानाय दिदेश। टीका-अथ अनन्तरम् श्रिया कान्त्या सौन्दयेणेति यावत् मसितः तिरस्कृतः ( कर्मधा०) मत्स्यलान्छनः कामदेवः येन सः ( व० वी०) मत्स्यः लान्छनं चिहं यस्य सः (ब० वी०) मत्स्यो हि कामदेवस्य ध्वजो मवति अतएवासौ. मकर-धजो मीन केतनश्चापि कथ्यते, परम-सुन्दरो नलः काम-पीडितोऽपि सन् सौन्दयें कामदेव जितवान् इति भावः, स्वं स्वकोयं रहस्यम् मर्म (कर्मधा० ) विदन्तीत्येवंशोलमेषां तथोक्तः अर्थात् नलस्य दमयन्त्यामनुरागोऽस्तीतिरहस्यज्ञः वयस्यैः सखिभिः समम् सह पुरस्य नगरस्य यत् उपकण्ठम् सामीप्यम् (10 तत्पु०) 'उपकण्ठान्ति. काभ्याभ्यग्रा अप्यभितोऽव्ययम्' इत्यमरः ) तस्मिन् यत् उपवनम् उद्यानम् तत् ईतिता द्रष्टा किल भलोकम् अनङ्गचिह्नगोपनाभिप्रायेणेति भावः निदेशं कुर्वन्तीतिशीलमेषां तथोक्तान् आशा-पालकान् भृत्यानिति यावत् यानाय वाहनाय वाहनमानेतुमित्यर्थः दिदेश आशापयामास / / 56 / / व्याकरण-खान्छनम् लान्छयते चियते अनेनेति लाग्छ+ल्युट करणे। वयस्यः वयसा तुल्य इति (वयस्+यत् ) वयस्यः समम् समम् के योग में तृतीया हुई है / ईक्षितां यह ईक्ष से तृन् प्रत्यय हुआ है, तृच नहीं, इसीलिए षष्ठी न होकर द्वितीया हुई है। यानाय यानम् आनेतुम् इस तरह तुमुन्नर्थ में चतुर्थी हुई है / यानम् यान्त्यनेनेतिया+ल्युट करण / दिदेश / दिक्ष् + लिट् / हिन्दी--तदनन्तर सौन्दर्य में कामदेव को फटकारे हुए नल ने अपना रहस्य जानने बाले मित्रों के साथ झूठमूठ हो नगर के पास उद्यान देखने हेतु वाहन लाने को भृत्यों को आदेश दिया / .56 / / टिप्पणी--विद्याधर ने 'मरिंसत०' में उपमा मानी है, किन्तु हमारे विचार में यह उपमा का विषय नहीं है, क्योंकि यहाँ उपमानभूत कामदेव से तुलना करके उसकी भर्त्सना-तिरस्कार किया गया * है इसलिए यहाँ प्रतीपालंकार है। उपमान का तिरस्कार भी प्रताप का एक अन्यतम मेद है / इसके अतिरिक्त विद्याधर ने यहाँ 'समम्' पद होने से सहोक्ति मी मानी है किन्तु यहाँ सहोक्ति भी नहीं है, कोकि सहोक्ति हमेशा कार्य-कारणपोवोपर्य-विपर्ययातिशयोक्ति को साथ लिये रहती है, जो यहाँ है ही नहीं / 'देश' 'देश' में यमक और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है / / 56 / / 1. पृ० 48 पंक्ति 2 क्षोदित का फुट नोट समझे /

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