________________ 40 प्रथमः सर्गः टिप्पणी-वैसे स्वमावतः ही ब्रह्मा का आसन कमल हुआ करता है, इसलिए ब्रह्मा का नाम हो कमलासन है किन्तु यहाँ कवि की यह अनूठी कल्पना है कि वह काम का ताप मिटाने हेतु मानो ठंडे कमल पर जा बैठा है / ताप के कारण लोग शोतल वस्तुओं को अपनाते ही हैं। यहाँ काव्य के तृतीय सर्ग के तीसवें श्लोक में उल्लिखित ब्रह्मा का अपनी ही पुत्री सरस्वती पर कामासक्त होने की घटना की ओर सकेत है। तनुशयतया-'छाया त्वनातपे कान्तो' ( वैजयन्ती) के अनुसार छाया के छाँह और शोमा दो अर्थ होते हैं। कुछ टीकाकारों ने छाया का परछाई अर्थ लिया है और तनोः शरीरस्य छाया तनुच्छायम् तस्य भावः तत्ता-तया, यों विग्रह करके यह अर्थ किया है-सौन्दर्य में कामदेव नल की क्या बराबरी कर सकता है, वह तो उसकी छाया-परिछाई-है, इसलिए नक कामदेव का लंघन-अतिक्रमण नहीं कर सका। अपनी परिछाई मला कौन लौंप सकता है ? यहाँ सन्तप्त-हुआ मानो ब्रह्मा कमल की शरण ले रहा है-यह उत्प्रेक्षा है, किन्तु वाचक शम न होने से वह प्रतीयमाना है। वृद्ध ब्रह्मा तक भी काम संतप्त हो उठते हैं, औरों को तो बात ही क्या, यह भर्थ प्राप्त हो जाने से अर्थापत्ति है / तनुच्छायता के कारण मानो नहीं लौंप सका-यह हेतूत्प्रेक्षा है जिसका वाचक शब्द 'शक' है। वारिजम् के साभिमाय होने से परिकरांकुर है / इस तरह इन सबका संकरालंकार है। पितः' 'पिता' और 'न ल (चितुम्)' 'नलः' में छेकानुपास है। उरोभुवा कुम्मयुगेन जम्भितं नवोपहारेण वयस्कृतेन किम् / अपासरिद् दुर्गमपि प्रतीर्म सा नलस्य तन्वी हृदयं विवेश यत् // 48 // अन्वयः यत् सा तन्वी त्रपा-सरिद् दुर्गम् अपि प्रतीर्य नलस्य हृदयम् विवेश, (तत् ) किम् वयस्कृतेन नवोपहारेण उरोभुवा कुम्भ-युनेन जृम्भितम् ? टीका-यत् सा तन्वी कृशाङ्गी दमयन्तीत्यर्थः पा लज्जा एव सरिद नदी ( कर्मधा० ) तस्या दुर्गम् दुर्गस्थानम् दुस्तर-प्रवाहमिति यावत् ( 10 तत्पु०) प्रतीय तीर्वा नलस्य हृदयम् स्वान्तम् विवेश प्राविशत् ( तत् ) किम् वयसा अवस्थया यौवनेनेत्यर्थः कृतेन जनितेन ( 80 तत्पु०) नव नूतनश्वासौ उपहारः उपायनम् तेन उरः वक्षःस्थलम् भूः उत्पत्ति-स्थानम् ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतेन (ब० वी० ) कुम्मयोः कलशयोः युगेन दयेन जम्भितम् विलसितम् चेष्टितमिति यावत् / यथा खलु काचित् नायिका। वक्षसि कुम्भवयं निधाय नदी तरति प्रियसंकेतस्थलं च तथैव दमयन्यपि / वक्षोगत-कुचदय-रूप-कुम्भ-दयेन लज्जा-नदी प्रतीर्य नल-हृदयं प्राविशत् ; सा लज्जा विहाय नलं चकमे; नलोऽपि तद्-यौवनाकृष्टस्तां निजहृदये प्रतिष्ठापयामासेति मावः / / 47 / / व्याकरण-त्रपा-Vत्रप् +अङ् ( मावे )+टाप् / दुर्गम् दुःखेन गन्तुं शक्यम् इति दुर+ गम् +ड / प्रतीयं +/+ल्यप् / विवेश/विश्+लिट् / उपहारः उपहियते इति उप+ Ve+घञ् कर्मणि / जृम्भितम् जम्म+क्त ( भाव वाच्य ) / हिन्दी-वह कृशाङ्गी ( दमयन्ती) लज्जारूपी दुर्गम नदी को पार करके जो नल के हृदय में जा पहुँची, उससे ऐसा लगता है मानो यौवन द्वारा ( उसे ) नये उपहार के रूप में दिये गये, वक्ष:स्थल पर उभरे कलश-युगल ने ( यह ) काम किया हो॥ 48 / /