Book Title: Naishadhiya Charitam 01
Author(s): Mohandev Pant
Publisher: Motilal Banarsidass

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Page 63
________________ 22 नैषधीयचरिते - अन्वयः-चमरी एव तदुत्तमाङ्गजैः समं स्वयं तुलाभिलाषिणः स्व-वाल-मारस्य अनागसे पुनः पुनः पुषक-विलोलन-च्छलात् बाल-चापलम् शंसति / टोका-चमरी= मृगीविशेषः एव-अपि 'एवशब्दोप्यर्थः' इति नारायणः, तदु० = तस्य-नलस्य इतनाजैः= शिरोरुहैः समम् = सह स्वयम् = आत्मना तुलाम् = तुलनाम् अभिलषति - च्छतीति तथोक्तस्य ( उप० तत्पु० ) बालानाम् मार : ( 10 तत्पु०) स्वःस्वीय: चासौ बालमार:- केशनिचयः ( कर्मधा० ) अनागसेन भागः=अपराधः तस्मै ( नञ् तत्पु० अत्र अभावपरकः) अर्थात् अपराधाभावे पुनः पुनः पुच्छ० =पुच्छस्य म्लाङ्गलस्य विलोलनम्-चालनम् (10 तत्पु० ) तस्य छलात्-(प० तत्पु०) बाल-बालानाम् =केशानाम् अथ च बालस्य= पाठकस्य चापलम्चाञ्चल्यम् अथ च चपलताम् शंसति=कथयति, अर्थात् स्वचपलबालकम् स्वयं महतां साम्यं कर्तुमिन्छन्तं दृष्ट्वा उन्माता यथा हस्तचालनेन 'बालोऽयम् , नास्त्यस्यापराधः' सम्वतामयम्' इति ब्रूते तद्वत् चमरी अपि // 25 // बाकरण-उत्तमाङ्गजैः-उत्तमं च तत् अङ्गम् शिर इत्यर्थः वस्मिन् जायन्ते इति उत्तमाज+ Vबन्+ड ( सप्तम्यर्थे ) / विलोलनम्-वि+Vलुल्+णिच् + ल्युट् ( मावे ) चापलम् = चपछस्व भाव इति+चपल+अण् / हिन्दी-चमरी गाय भी उस ( नल ) के केशों से स्वयं बराबरी चाहनेवाले अपने बाल-समूह के अपराधामाव हेतु बार-बार पूँछ हिलाने के बहाने बाल-चपलता ( (1) बालों की चञ्चलता (2) पाक का मनचलापन ) कह रही है // 25 // टिप्पणी-यहाँ कवि ने बाल शब्द में श्लेष रखकर बड़ा चमत्कार दिखाया है / वैसे किसी के पने वालों को तुलना चमरी-गाय के पुच्छ से दी जाती है किन्तु नल के बाल उससे कहीं अधिक घने ये। फिर भो पुच्छ के बाल समानता करने की ढिठाई कर ही बैठे तो इस पर चमरी गाय पुच्छ हिलाने लगी मानो क्षमा मांग रही हो कि यह बाल (बच्चे ) की चञ्चलता है, अपराध नहीं, क्शन-वश बाल ऐसा किया हो करते हैं। यहाँ उत्प्रेक्षा-वाचक शब्द न होने से गम्योत्प्रेक्षा है, साथ ही दो भिन्न-भिन्न बालों ( केश, बालक ) में अभेद दिखाकर मेरे अमेदातिशयोक्ति, और पुच्छचालन काण्ठ बताकर अपहृति भी मिलकर संकर बना रहे हैं / शब्दालङ्कार यहाँ वृत्त्यनुपास है / / 25 / / महीभृतस्तस्य च मन्मथश्रिया निजस्य चित्तस्य च तं प्रतीच्छया / द्विधा नृपे तत्र जगत्त्रयीभुवां नतभ्रुवां मन्मथविभ्रमोऽभवत् // 26 // अन्वयः-तस्य महीभृतः मन्मथः-श्रिया च तम् प्रति निजस्य चित्तस्य इच्छया च तत्र नृपे बमत्-त्रयोभुवाम् नत-ध्रुवां द्विधा मन्मथ-विभ्रमः अभवत् // टीका-तस्य महीभृतः= राशः नलस्येत्यर्थः मन्मथः कामः तस्य श्रीः- कान्तिः (10 सत्पु०) व श्रोः तया च तमुलं प्रति निजस्य स्वकीयस्य चित्तत्य=मनसः इच्छयाअमिठाषेण तत्र तस्मिन् नृपे=राशि नले जग०-त्रयोऽवयवा अत्रेति त्रि+अयच् +डोप = त्रयो जगतः संसारस्य त्रयी-त्रित्वसंख्या स्वर्ग-मयं पातालानीत्यर्थः (10 तत्पु०) भूः = उत्पत्ति.

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