________________ 24 नैषधीयचरिते रहते हैं। भ्रंशजुषा = भ्रंशं जुषते इति भ्रंश+/जुष् + विप् कर्तरि निपीय इसके लिए प्रारम्भ का श्लोक देखिए। हिन्दी-देवागनायें निमेष रहित नयनों से उस ( नल ) को अच्छी तरह देखने का जो ( अभ्यास ) कर बैठी थीं, वे आज भी निमेष-रहित नयनों द्वारा उस अभ्यास के अतिशय को प्रकट करती जा रही हैं ( भूलो नहीं हैं ) // 27 // टिप्पखो-देवताओं के सम्बन्ध में यह प्रसिद्ध है कि एक तो वे सदा युवा रहते हैं, दूसरे, उनकी आँखें स्वमावतः कमी नहीं झपकती। यहाँ स्वभावत: निमेष-रहित दृष्टि वाली देवाङ्गनाओं के विषय में कवि की यह बोल्पना है कि उन्होंने पहले नल को जो एक-टक निगाह से कमो देखा था, उसका संस्कार उनमें अभी तक बना हुआ है, इसलिए वे आँखें नहीं झपकाती हैं / यहाँ उत्प्रेक्षावाचक शब्द काई नहीं है, अतः यह प्रतीयमानोत्प्रेक्षा है // 27. / अदस्तदाकर्णि फलान्यजीवित दृशोर्द्वयं नस्तदवीक्षि चाफलम् / इति स्म चक्षुःश्रवसां प्रिया नले स्तुवन्ति निन्दन्ति हृदा तदात्मनः // 28 // अन्वयः-“भदः नः दृशोः द्वयम् तदाकणि ( अतः ) फलाढय जीवितम् ( अस्ति ), तदवीक्षि ( अतः ) अफलम् च"-इति चक्षुःअवसाम् मियाः नले आत्मनः तत् हृदा स्तुवन्ति, निन्दन्ति (च) / टीका-भदः= इदम् नः- अस्माकम् दृशोः= नयनयोः द्वयम् = युगलम् तम् = नलम् आकर्णयतीति तदाकणि ( उप० तत्पु० ) अर्थात् नलगुषान् शृणोति सर्पाणाम् चक्षुःश्रवत्वात , अतएव फला०-फलेन प्रात्यम् = सम्पन्नम् ( तृ० तत्पु०) जीवितम् = जीवनम् ( कर्मधा० ) यस्य तत् (ब० वी० ) अर्थात् सफलजीवितम् अस्ति, तद० = तम् न वीक्षितुं शीलमस्येति ( उप० तत्पु०) तथोक्तम् अतएव अफलम् -न फलं यस्य तत् (ब० वी० ) निष्फलजीवितमित्यर्थः पातालस्थितानां तासां नल प्रत्यक्षीकरणासम्भवात् इति हेतोः चक्षुःश्रवसाम-नागानां प्रियाः= सुन्दर्यः नले= नलविषये प्रारमनः = स्वस्य तत्-दृशोः इयम् हृदा=मनसा स्तुवन्ति = प्रशंसन्ति निन्दन्ति: कुत्सयन्ति च // 28 // व्याकरण-जीवितम्-/जीव् +क्त मावे / तदाकणिं तदवीक्षि दोनों में ताच्छील्यार्थ में णिन् प्रत्यय / चक्षुःश्रवसाम्-चक्षुर्गा शृण्वन्तीति पृषोदरादित्वात् साधुः / हिन्दी-"हमारी दोनों आँखें उस ( नल ) को सुननेवाली हैं ( अतः वे ) सफल-जीवन हैं, उस (नल ) को देखने वाली नहीं, ( अतः ) निष्फल हैं" इस तरह नागों की स्त्रियों नल के विषय में अपनी उन ( आँखों ) को प्रशंसा करती हैं और निदा ( भी ) करती हैं // 28 // टिप्पणी नल का यश त्रिभुवनों में व्याप्त हो रहा था। पातालवासी नाग-सुन्दरियों ने अपनी आँखों से उसके गुण तो सुन लिए थे, किन्तु मर्त्यलोक में होने से वे उसे देख नहीं पा रही थी। सर्प को चक्षुःश्रता इसलिए कहते हैं कि उसके काम नहीं होते, माँखों से हो वह सुनने का काम मी हे देता है। यहाँ चक्षःश्रव शब्द साभिप्राय है, इसलिए विशेष्य पद के सामिप्राय होने से 'कुवलयानन्दकार के अनुसार यहाँ परिकराकर अलंकार है। इसके अतिरिक्त, इस तरह प्रशंसा और निन्दा