________________ नैषधीयचरिते कर्मधा० ) यस्य तथाभूतः (ब० वो ) गुणः प्रत्यचा स्वधनुषो मौर्वात्यर्थः श्रवणयोः अतिथि: पी प्रकारि कर्णपर्यन्तमाकृष्ट इति यावत् / यदैव दमयन्ती-सौन्दर्यादिगुपः नलस्य कर्णगतः तदैव कामदेवस्य धनुर्गुणोऽपि ( प्रत्यञ्चाऽपि ) आकृष्टः सन् तत्कणं गतः इत्यर्थः, दमयन्ती-सौन्दर्यमाकर्ण्य कामपीडितोऽभवदिति भावः / / 44 // व्याकरण-समाभुज क्षमा+Vभुज+विप् कर्तरि / प्रात्मजा भात्मनो जायते इति जामन्+/जन् +3+टाप् / श्रवणम् श्रयतेऽनेनेति/श्रु+ल्युट करण / व्ययः वि+Vs+ नाच मावे / संहित-सम् + धा+क्त कर्मणि / आश्रयः आ+/भि+अच अधिकरणे / हिन्दी-उस महिपाल ( नल) ने भीम नृप को पुत्री ( दमयन्ती) में पर किया हुआ गुण {सौन्दर्यादि ) कान का अतिथि बनाया (=सुना), और उसके उच्च धैर्य के विनाश हेतु बाण बदाये कामदेव ने ( भो ) अपने सुन्दर धनुष पर आश्रित गुण (डोरो) को कान का अतिथि बनाया कान तक खींचा ) / / 44 / टिप्पणी-इस श्लोक में 'श्रवणातिथि' तथा 'गुण' शब्द श्लिष्ट है / नल-पक्ष में 'श्रवणातिथिः अबारि' का अर्थ है 'सुना' और कामदेव-पक्ष में अर्थ है 'कान तक खींचा। इसी तरह पहले पक्ष में गुष' का अर्थ 'सौन्दर्यादि' है और दूसरे पक्ष में 'प्रत्यञ्चा' ( धनुष की डोरी)। यहाँ नल का दमकती का गुण ( सौन्दर्य ) सुनना और कामदेव का गुण ( धनुष की डोरी) खींचना दोनों प्रस्तुत है। दोनों गुणों का एक ही धर्म अर्थात् श्रवणातिथि-करण से सम्बन्ध बताया गया है, इसलिए तुल्यबोगिता अलंकार है। तुल्ययोगिता वहाँ होती है, जहाँ दो प्रस्तुत-प्रस्तुतों अथवा अप्रस्तुत-अप्रस्तुतों का एक धर्म से सम्बन्ध हो। इसके अतिरिक्त नल ने दमयन्ती का सौन्दर्य पहले सुना, उसके बाद फल-स्वरूप कामदेव ने प्रत्यञ्चा खींची, किन्तु यहाँ कवि ने दोनों का एक ही साथ होना बताया है, इसलिए कारण को पहले और कार्य को पीछे न बताकर दोनों को युगपत् बताने से कार्य-कारण पौर्वापर्य विपर्ययातिशयोक्ति भी है / इस तरह यहाँ दोनों का संकर है। किन्तु मल्लिनाथ ने उत्तरार्धक्त वाक्यार्थ का पूर्वार्धगत वाक्यार्थ कारण बताने से काव्यलिंग माना है / 'स्वात्मशरा०' में 'स्व' बौर 'आत्म' शब्दों का आपाततः एक ही अर्थ प्रतीत होकर बाद में 'मु+आत्म' ऐसा सन्धि-च्छेद बरने से भिन्न-भिन्न अर्थ होता है, अतः पुनरुक्तवदामास शब्दालंकार है / / 44 // अमुष्य धीरस्य जयाय साहसी तदा खलु ज्यां विशिखैः सनाथयन् निमजयामास यशांसि संशये स्मरस्त्रिलोकोविजयार्जितान्यपि // 45 // अन्वयः–तदा साहसी स्मरः समुन्य धीरस्य जयाय खलु ज्या विशिखैः सनाथयन् त्रिलोकीमिजवाजितानि अपि ( निज-) यशांसि संशये निमज्जयामास / रोका-तदा तस्मिन् समये साहसम्-हिताहितानपेक्षं कर्म अस्यास्तीति साहसी असमीक्ष्यकापर्वः स्मरः कामदेवः अमुष्य अस्य धीरस्य धैर्यगुणसम्पन्नस्य नकस्य जयाय विजयार्थ खलु निश्चबेन ज्याम् प्रत्यञ्चाम् विशिखैः बाणः सनाथयन् सनया कुर्वन् संयोजयन्नित्यर्थः त्रयाणां लोकानां माहारः त्रिलोकी (सपाहारदिगुः ) तस्या विजयेन पराजयेन ( 10 तत्पु०) अर्जितानि सम्पा.