Book Title: Naishadhiya Charitam 01
Author(s): Mohandev Pant
Publisher: Motilal Banarsidass
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________________ प्रथमः सर्गः खा जाता है। शब्दान्तर में यो समझ लीजिये कि दमयन्ती का सौन्दर्य नल के सौन्दर्य के अनुरूप ही है / यहाँ कीर्ति व्रज पर मौक्तिक-नक्स्व और गुणोत्कर पर गुम्फन-सूत्रस्व का प्रारोप होने से रूपक है और साङ्ग है / 'गुण' 'गुणो' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है // 42 // तमेव लब्ध्वावसरं ततः स्मरः शरीरशोमाजयजातमत्सरः / अमोघशक्त्या निजयेव मूर्तया तया विनिर्जेतुमियेष नैषधम् // 43 // अन्वयः-ततः शरीर...मत्सरः स्मरः तम् एवावसरम् लब्ध्वा मूर्तया निजया अमोघ-शक्त्या इस तया नैषधम् विनिजेतुम् इयेष। टीका-ततः दमयन्तीगुणवणानन्तरम् शरीर०-शरीरस्य देहस्य शोमया कान्त्या सौन्दर्ययेत्यर्थः (10 तत्पु० ) जयेन पराभवेन जातः समुत्पन्नः ( उभयत्र तृ० तत्पु० ) मत्सरः द्वेषः ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतः (ब० बी० ) स्मरः-कामदेवः तम् एव अवसरम् अवकाशम् समयमिति यावत् लम्चा प्राप्य मूर्तया मूर्तिमस्या सशरीरयेति यावत् निजया स्वकोयया अमोघा अविफला या शक्तिः सामर्थ्यम् ( कर्मधा० ) तया इव नैषधम् नलम् विनिर्जेतुम् परामवितुम् इयेष ऐच्छत् ; 'जात-क्रोधो वैरी कमप्यवसरं प्राप्य शक्त्यायुधः सन् वैरिणं पराजेतुं प्रक्रमते' // 44 // व्याकरण-शोभा/शुभ +अ+टाप् / जयः /जि+अच् / मूर्तया-/मूर्छ+क्त+ 'टाप / विनिर्जेतुम् वि+निर्+/जि+तुम् / इयेष- इष् +लिट् / नैषधम् इसके लिए श्लोक 36 देखिए। हिन्दी-तदनन्तर ( नल ) के शरीर की शोभा द्वारा पराजय से ईर्ष्या-भरे मदन ने वही अवसर पाकर अपनी साकार अमोघ शक्ति-जैसी उस ( दमयन्ती ) के द्वारा नल को जीतना चाहा / / 43 / / टिप्पणी-यहाँ कवि दमयन्ती पर कामदेव की साकार शक्ति की कल्पना कर रहा है, इसलिए उत्प्रेक्षालङ्कार है। हार खाकर कोई भी व्यक्ति उचित समय पर बदला लेना चाहता ही है। वही कामदेव भी कर रहा है / / 43 // अकारि तेन श्रवणातिथिर्गुणः क्षमाभुजा भीमनृपात्मजालयः / तदुच्चधैर्यव्ययसंहितेषुणा स्मरेण च स्वात्मशरासनाश्रयः // 44 // अन्वयः-तेन क्षमा-भुजा मीम-नृपात्मजालयः गुणः, तदुच्च...पुणा स्मरेण च स्वात्म-शरासनाश्रयः ( गुणः ) श्रवणातिथिः अकारि / ____टीका-तेन चमां पृथिवीम् भुनक्ति शास्तीति तथोक्तंन भूपालेन नलेनेत्यर्थः ( उपपद तत्पु०) भीमश्चासो नृपः राजा ( कर्मधा० ) तस्य श्रात्मजा पुत्री ( 10 तत्पु० ) भैमी दमयन्तीति यावत् श्रालयः स्थानम् , आश्रयः ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतः (ब० वी० ) दमयन्ती-सम्ब-धीत्यर्थः गुणः सौन्दर्यादिः श्रवणयोः कर्णयोः अतिथिः प्राधुणिकः अकारि कृतः आकर्णित इत्यर्थः तदुच्च०तस्य नलस्य उच्चम् उत्कृष्टम् ( कर्मधा० ) यत् धैर्यम् तस्य व्ययः विनाशः ( उभयत्र प० तत्पु०) तस्मै संहितः धनुषि आरोपितः ( च० तत्पु० ) इषः बाणः ( कर्मधा० ) येन तथाभूतेन स्मरेण कामदेवेन सु शोभनम् आत्मनः स्वस्य यत् शरासनं धनुः (10 तत्पु० ) तत् प्राश्रयः आधारः, स्थानम्

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