________________ प्रथमः सर्गः कोई शान नहीं होता। यहाँ भो प्रश्न उठता है कि जब सुषुप्ति में शान ही नहीं, तो सुषुप्ति ने दम यन्ती को नल कैसे दिखा दिया ? इसका उत्तर हमारे पास यही है कि जब हम नींद से जाम का हैं, तो 'सुखमहम् अस्वाप्सम्, न किञ्चिदवेदिषम्' अर्थात् 'खूप आनन्द से सोया, कुछ भी पता न चला यह प्रतीति सभी को हुआ करती है। इसका 'न किञ्चिदवेदिषम्' वाला अंश सुषुप्ति में बाह्य पर और स्वप्न-जगत् के ज्ञान का प्रत्याख्यान कर रहा है किन्तु 'सुखमहम् अस्वाप्सम्' इस अंश में सपुति में अहं पद वाच्य आत्मा और उसके सुख-आनन्द-स्वरूप का शान सर्वथा अप्रत्याख्येव है। शब्दान्तर में, सुषुप्स्यवस्था में आनन्द स्वरूप आत्मा का मान बना रहता है, देखिए माण्डूक्म'सुषुप्तस्थान एकीभूतः प्रशाधन एवानन्दमयो ह्यानन्दभुक् चेतोमुख, प्राशः'। इसे हम अस्थायी मुखवस्था या क्षणिक मुक्ति कह सकते हैं। प्रकृत में दमयन्तो का नल के प्रति अनुराग इतनी ऊँनो स्थिति में पहुँच चुका था कि जहाँ उसकी और नल की आत्मा परस्पर घुल-मिलकर एकीभूत हो बैठो हो। अर्धनारीश्वर की तरह प्रिय और प्रेयसी का यह ऐकात्म्यमाव अथवा अद्वैत ही सच्चे प्रेम को कसोटये है। दमयन्तो ने सुषुप्ति में नल को स्त्रात्म-रूप में देखा। इस तरह सुषुप्ति में दमयन्ती द्वारा नलदर्शन में कोई अनुपपत्ति नहीं आती। इसीलिए नरहरि का यह कहना ठीक है-'अत्र नलस्य स्वात्ममावेन प्रतिमासनात् न सुषुप्त्यवस्थात्वहानिः। पृथक्त्वेन प्रतिभासे तु स्वप्नत्वमेव स्यान्न सुषुप्तित्वमिति। या श्लोक में नल पर महत्-रहस्यत्वारोप होने से रूपकालंकार है और 'महन्महीपत्तिः' में छेकानुप्रास / 'कदाप्यवीक्षितः' में प्रतिषेध की प्रधानता होने से नञ् को पृथक् रखकर कदापिस वीक्षित:' इस रूप में रखना चाहिए था, किन्तु यहाँ समास कर देने से उसकी विधेयता चली गई है, इसलिए विधेयाविमर्श दोष बन रहा है // 40 // अहो अहोमिर्महिमा हिमागमेऽप्यमिप्रपेदे प्रति तां स्मरार्दिताम् / तपर्तुपूर्तावपि मेदसां मरा विमावरीमिर्बिमरावभूविरे // 41 // अन्वयः-अहोभिः हिमागमे अपि स्मरादिताम् ताम प्रति महिमा अमिप्रपेदे; विमावरोशित ( च ) तपर्तुपूतौ अपि मेदसा भरा बिभरांबमूविरे ( इति ) अहो ! टीका-अहोमिः दिवसैः हिमस्य भागमः आगमनम् तस्मिन् ( 10 तत्पु० ) अर्थात् हेमन्तत अपि स्मरेण मदनेन अर्दिताम् पीडिताम् ताम् दमयन्तीम् प्रति लक्ष्यीकृत्य महिमा दैर्घ्यम मि प्रपेदे प्राप्तः, विभावरीभिः रात्रिभिः ( च ) तप: ग्रीष्मः चासौ ऋतुः ( कर्मधा० ) तस्य पूट. पूर्णतायाम् ( 10 तत्पु०) ग्रीष्मस्य पूर्णावस्थायामित्यर्थः अपि मेदसाम्-मज्जानाम् भराः राशकः बिमरांबभूविरे धृताः, रात्रयो दीव भूता इत्यर्थः इस्यहो आश्चर्यम् / / 41 // ____ ग्याकरण-महिमा महतो भाव इति महत्+इमनिच् / ध्यान रहे कि इमनिच् प्रत्यय से से महिमन् , लघिमन् , गरिमन् , ढिमन् आदि शब्द पुल्लिग रहते हैं। आगमे आ+/मम् + घा भावे, वृद्धयमाव / अर्दिताम् / अर्द+क्त+टाप् / अभिप्रपेदे लिट् ++ पद्+अनि पुतौं- पूर+क्तित् भावे। बिभरांबभूविरे-/भृ + आम् भू+लिट कर्मणि-('मोझे भृ०' ( 6 / 11192 ) से आम् द्वित्व ) /