Book Title: Naishadhiya Charitam 01
Author(s): Mohandev Pant
Publisher: Motilal Banarsidass

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Page 71
________________ नैषधीयचरिते अन्वयः-मिथः कया प्रसङ्गेषु सखी-मुखात् नल-नामनि तृणे अपि अते ( सति ) अनया तन्व्या अन्यत् द्रुतम् विधूय मुदा तदाकर्णन-सज्जकर्षया अभूयत / टीका-मिथः = परस्परम् कथायाः वार्तालापस्य प्रसङ्गेषु = अवसरेपु सखीनाम् = आलीनाम् मुखात् = वक्त्रात् ( ष. तत्पु० ) 'नल:' नाम यस्य तथाभूते ( ब० वी० ) अर्थात् नलाख्ये तृणेघासे अपि श्रुते=आकर्षिते (प्रियतमे) सति अनया तन्व्या=कृशाझ्या दमयन्त्या अन्यत् = कयान्तरं कार्यान्तरं वा द्रुतम् = झटिति विधूय = अपाकृत्य परित्यज्येति यावत् एताः सख्यः मम प्रियतमस्य राशो नलस्य सम्बन्धे एव वार्तालापं कुर्वन्तीति बुद्धयेति भावः, मुदा हप तस्यनलनाम्नः प्राकर्णनेश्रवणे ( 10 तत्पु० ) सज्जौ = लग्नौ ( स० तत्पु०) कणों =श्रोत्रे ( कर्मधा० ) यस्यास्तथाभूतया (ब० वी०) भभूयत - भूतम् / सा तच्छ्रवण-संलग्ना जावेत्यर्थः // 35 // व्याकरण-प्रसङ्ग-+ सञ्ज +घञ् भावे / विधूय-वि+vधूञ् + ल्यप् / भाकणनम्-आ+/कण्+ल्युट भावे / सज्जः-सज्जतीति सस् +अच कर्तरि / अभूयत-/ भू+लङ् ( माववाच्य ) / हिन्दी-परस्पर बातचीत के प्रसंगों में सखियों के मुख से तृण के विषय में भी 'नल' नाम सुन लेने पर वह कृशाङ्गी (दमयन्ती ) झट अन्य ( काम अथवा बात ) छोड़कर हर्ष में उसे सुनने हेतु कान खड़े किये रहती थी॥ 35 // टिप्पणी-नल नाम का एक घास भी होता है जिसे नरकुल या नरसल भी कहते हैं / दमयन्ती का नल राजा पर इतना अधिक अनुराग हो उठा कि यदि उसकी सखियाँ घास अर्थ में भी नल शब्द का प्रयोग करती; ती वह झट यह समझ बैठती कि उसके प्रियतम के सम्बन्ध में बात ले रही हैं। यह औत्सुक्य माव कहलाता है, इसके साथ ही हर्ष- भाव ही है, इसलिए भाव-संमिश्रण होने से यहाँ भाव-शबलता अलंकार है। 'तृणेऽपि' में अपि शब्द से कैमुतिक-न्याय से 'और बातों से तो कहना ही क्या ?' इस अर्थान्तर की प्रतीति होने से अर्थापत्ति अलंकार भी है। 'कर्ष', 'कर्ण' में यमक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास शब्दालंकार है // 35 // स्मरात्परासोरनिमेषलोचनाद् बिभेमि तद्भिामुदाहरेति सा। जनेन यनः स्तुवता तदास्पदे निदर्शनं नैषधमभ्यषेचयत् // 36 // अन्वयः--"परासोः अनिमेष-लोचनात् स्मरात् ( अहम् ) विमेमि, तत् भिन्नम् उदाहर इति सा यूनः स्तुवता जनेन तदास्पदे नैषधम् निदर्शनम् अभ्यषेचयत् / / टीका--परा=परागता प्रसवः प्राणा यस्य तथाभूतात् (प्रादि ब० वी०) अर्थात् मृतात् अत एव न निमेषः= निमीलनम् ययोः तथोक्ते (ब० वी०) लोचने=नयने ( कर्मधा० ) यस्य तस्मात् (ब० वी० ) स्मरात् = कामात् बिभेमि = अहं भीता मवामि, तत्=तस्मात् कारणात् मित्रम् अन्यम् निदर्शनम् = दृष्टान्तम् उदाहर = कथय इति एवं प्रकारेण सा दमयन्ती यूनः= युवकान् स्तुवता= प्रशंसता जनेन सखीभिः तस्य = स्मरस्य प्रास्पदे स्थाने (प० तत्पु०) नैषधम् निषधानां राजानं नलमित्यर्थः अभ्यषेचयत् -- स्थापयामासेत्यर्थः / अयं भावः-'अमुकोऽमुको युवा मदनसदृशः' इति समुदाहरन्तीः सखीः निषिध्य 'नल-सदृशं' इति सा तामिः प्रत्यपीपदत् // 36 /

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